Book Title: Jainology Parichaya 05
Author(s): Nalini Joshi
Publisher: Sanmati Tirth Prakashan Pune

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Page 27
________________ १८) अलब्धलाभो लब्धपरिरक्षणं रक्षितपरिबर्द्धनं चार्थानुबन्धः । स्वैरभावानुवाद : अर्थ का अनुबन्ध तीन उपायों से होता है । जो अब का प्राप्त नहीं किया है उसकी प्राप्ति करना, 'अलब्धलाभ' है । प्राप्त किये हुए धन का रक्षण, 'लब्धपरिरक्षण' है । धन का केवल रक्षण न करके संवर्धन करना, रक्षितपरिवर्धन' है। आर्थिक समृद्धि के ये तीन महत्त्वपूर्ण उपाय है। १९) धर्मसमवायिनः कार्यसमवायिनश्च पुरुषास्तीर्थम् । अर्थ : धर्मसमवायी और कार्यसमवायी पुरुषों को 'तीर्थ' कहते हैं। भावार्थ : विविध सम्प्रदायों में 'तीर्थ' संकल्पना अलग-अलग तरीके से स्पष्ट की जाती है । सोमदेव उन सभी पुरुषों को तीर्थ कहते हैं जो विविध धार्मिक कृत्यों में सहायक होते हैं एवं हमारे द्वारा अंगीकृत सत्कार्य की सिद्धि में हमें मदद करते हैं। २०) तीर्थम् अर्थेन संभावयेत् । अर्थ : धर्मतीर्थरूप और कार्यतीर्थरूप पुरुषों को समय-समय पर अर्थ प्रदान से सन्तुष्ट करें। २१) तादात्विकमूलहरकदर्येषु नासुलभः प्रत्यवायः । अर्थ : तादात्विक, मूलहर और कर्दय इन तीन प्रकार के लोगों के द्वारा, सदैव अर्थनाश ही होता हैं । २२) य: किमपि असंचित्य उत्पन्नम् अर्थं व्ययति स तादात्विकः । अर्थ : खुद के द्वारा कमाये हुए धन में से कुछ भी न बचाकर जो पूरा व्यय कर देता है उसे 'तादात्विक' कहते हैं। २३) यः पितृपैतामहम् अर्थम् अन्यायेन भक्षयति स मूलहरः । अर्थ : जो व्यक्ति पिता और पितामह ने कमाया हआ धन अन्यायपूर्वक याने व्यसनादि में भक्षण करता है उसको मूलहर' कहते हैं । २४) या भृत्यात्मपीडाभ्यामर्थं संचिनोति स कदर्यः । स्वैरभावानुवाद : जो भृत्यों को याने नोकर-चाकरों को और खुद को भी बहुत पीडा देकर पैसा इकट्ठा करता है असे ‘कर्दय' याने कृपण, कन्जूस कहते हैं । ऐसे कृपण लोग न दूसरों को कुछ देते हैं और स्वयं भी पैसों का उपभोग नहीं लेते । परिणामवश उनका द्रव्य शासनाधिकारी एवं तस्करों द्वारा ही हरण होता है । * राजनीति मुख्यत: अर्थशास्त्र पर आधारित होने के कारण नीतिवाक्यामृत के इस अर्थसमुद्देश में कुल ११ सूत्रों में अर्थ की व्याख्या, महत्त्व आदि की दृष्टि से अर्थविषयक विचार सामने रखे हैं । व्यावहारिक दृष्टि से अर्थ का महत्त्व अधोरेखित किया है । अन्त में कहा है कि, 'अर्थ की कुल तीन गतियाँ है - दान, भोग एवं नाश । अगर दान नहीं दिया और भोग नहीं लिया तो अर्थ का विनाश सनिश्चित है।' (क) कामसमुद्देश २५) यतः सर्वेन्द्रियप्रीतिः स कामः ।। अर्थ : सभी इन्द्रियों द्वारा उनके विषयों का आस्वाद लेने से, विषयों के प्रति जो अत्यधिक प्रीति या आकर्षण निर्माण होता है उसको 'काम' कहते हैं । 27

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