Book Title: Jainology Parichaya 05
Author(s): Nalini Joshi
Publisher: Sanmati Tirth Prakashan Pune

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Page 26
________________ १४) धर्मातिक्रमाद्धनं परेऽनुभवन्ति स्वयं तु परं पापस्य भाजनं सिंह इव सिन्धुरवधात् । स्वैरभावानुवाद : धर्म की मर्यादाओं का उल्लंघन करके अगर कुटुम्ब के सौख्य के लिए अत्यधिक धन कमाया, तो उसके द्वारा मिलनेवाले सुख का अनुभव तो दूसरे व्यक्ति कर लेते हैं लेकिन पाप का भागी तो, मर्यादा का उल्लंघन करनेवाला व्यक्ति अकेला ही भुगतता है । सोमदेव यह वस्तुस्थिति एक उदाहरण द्वारा स्पष्ट करते हैं । भूखा सिंह, हाथी का (सिन्धुर का ) वध करता है । खुद के भोजन के लिए तो कुछ ही मांसखण्ड उपयोग में लाता है । उसकी क्षुधाशान्ति के बाद सियार, गीध, कौए आदि कई प्राणि-पक्षी उसी हाथी के सहारे भरपेट भोजन करते हैं । लेकिन हत्या का पातक तो पूरा सिंह को ही लगता है । इस दृष्टान्त से सोमदेव स्पष्ट करते हैं कि अगर व्यक्ति पाप का भागी नहीं होना चाहता तो मर्यादा से कई गुना अधिक धन पापमार्ग से नहीं कमाना चाहिए । १५) यः कामार्थावुपहत्य धर्ममेवोपास्ते स पक्व क्षेत्रं परित्यज्यारण्यं कृषति । अर्थ : जो व्यक्ति काम और अर्थ इन पुरुषार्थों को दुर्लक्षित करके सिर्फ धर्माराधना में लगा रहता है वह मानों धान्य से लहलहाता खेत छोडकर, अरण्य में जाकर खेती करता है । भावार्थ : सोमदेव ने यह ग्रन्थ सामान्य गृहस्थ को सामने रखकर ही लिखा है । उसके अनुसार धर्म, अर्थ और काम तीनों का स्थान, गृहस्थाचार में, समान महत्त्व का है । गृहस्थोचित सारे कर्तव्यकर्म छोडकर अगर वह केवल धर्माराधना में जुड जाता है तो उसकी व्यावहारिक जीवन यात्रा, सफल नहीं होती अच्छी तरह I १६) स खलु सुधीर्योऽमुत्र सुखाविरोधेन सुखमनुभवति । अर्थ : जो परलोक के भावी सुखों के विरोधी न होनेवाले सुखों का आनन्द लेता है, वही सचमुच 'बुद्धिमान' कहने योग्य है । भावार्थ : सोमदेव का आशय यह है कि आध्यात्मिक दृष्टि से सौख्य त्याग कितना भी महत्त्वपूर्ण हो, लेकिन सामान्य आदमी सुख की आशा से ही कार्यप्रवृत्त होता है । महत्त्वपूर्ण बात यह है कि वे सुख दूसरों की खुशी छीनकर नहीं लेने चाहिए और साथ ही साथ अपने पारलौकिक कल्याण में भी बाधाजनक नहीं होने चाहिए । एक दृष्टि से सुखवादी 'चार्वाकों का मन सोमदेव को कुछ मात्रा में ग्राह्य लगता 1 * नीतिवाक्यामृत ग्रन्थ के धर्मसमुद्देश प्रकरण में कुल ४८ संस्कृत सूत्र हैं । उनमें से १६ सूत्र यहाँ पर ग्रथित किये हैं । धर्म से सम्बन्धित ऐसा विवेचन यहाँ पाया जाता है जो विश्व के कोई भी गृहस्थ नागरिक के लिए नैतिक मूल्यों का मार्गदर्शन करें और उसमें सद्गुणों का परिपोष हो जाये । (ब) अर्थसमुद्देश १७) यतः सर्वप्रयोजनसिद्धिः सोऽर्थः । अर्थ : वहीं 'अर्थ' है, जिससे सब प्रयोजनों की सिद्धि होती है । भावार्थ : कौटिलीय अर्थशास्त्र में जिस प्रकार 'अर्थ' का महत्त्व स्पष्ट किया है, उसी का अनुसरण करके सोमदेव भी अर्थ को सब प्रयोजनों की सिद्धि करनेवाला कहता है । आध्यात्मिक दृष्टि से भले ही अर्थ, 'परिग्रह' की कोटि में रखा जाता है तथापि दैनन्दिन व्यवहार में किसी भी छोटे-बडे प्रयोजनों की सिद्धि के लिए, अर्थ याने धन, वित्त का महत्त्व कभी भी हम नजरन्दाज नहीं कर सकते । 26

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