Book Title: Jainology Parichaya 05
Author(s): Nalini Joshi
Publisher: Sanmati Tirth Prakashan Pune

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Page 24
________________ ६) ऐहिकामुत्रिकफलार्थमर्थव्ययस्त्यागः । अर्थ : ऐहिक और आमुत्रिक याने पारलौकिक फल के प्राप्ति के लिए किया हुआ अर्थव्यय (धन का व्यय) 'त्याग' कहलाता है। भावार्थ : सभी भारतीय परम्पराओं में 'दान' का महत्त्व अनन्यसाधारण है । 'त्याग' का महत्त्व भी बार-बार बताया गया है । इस सूत्र में सोमदेव ने दोनों का सम्बन्ध परस्पर स्थापित किया है । यद्यपि त्याग याने दान, विविध प्रकार का किया जाता है तथापि गृहस्थ के लिए प्रमुखता से अर्थव्ययरूपी त्याग ही मायने रखता है। चाहे अन्नदान हो, या वस्त्रदान हो उसमें अर्थव्यय अनिवार्य रूप से आता ही है । सोमदेव ध्वनित करते हैं कि आसक्तिरहित दान याने त्याग से ऐहिक उन्नति होती है और पारलौकिक भी। ७) पात्रं च त्रिविधं धर्मपात्रं कार्यपात्रं कामपात्रं चेति । अर्थ : पात्र तीन प्रकारके हैं - धर्मपात्र, कार्यपात्र और कामपात्र । भावार्थ : संस्कृत सूत्रों में नीतिविषयक ग्रन्थ लिखनेवाले सोमदेव बहुत ही तर्कनिष्ठ शैली का अनुकरण करते हैं । इसी वजह से त्याग या दान के अनन्तर, पात्रता-अपात्रता की चर्चा करना अत्यन्त स्वाभाविक है । पात्रता सम्बन्ध व्यक्तियों का उन्होंने दिया हआ त्रिप्रकारक वर्गीकरण अभिनव भी है और व्यावहारिक भी 'धर्मपात्र' के अन्तर्गत उन्होंने धार्मिक दृष्टि से दिये हए अर्थव्यय का निर्देश किया है । जैसे कि भिक्षु आदि को दानमन्दिर-मर्ति आदि के लिए दान. गरु आदि के लिए दिया हआ दान इ. । ‘कार्यपात्र' शब्द का मतलब सोमदेव स्पष्ट करते हैं कि, हमारे द्वारा अंगीकृत अच्छे कार्यों को सिद्ध करने में, जो जो हमें सहायभूत होते हैं उनका अन्तर्भाव कार्यपात्रों में हो सकता है। हमारे सगे-सम्बन्धी, नोकर-चाकर, व्यवसाय के भागीदार और सामाजिक क्षेत्र के लोग इन सबका अन्तर्भाव कार्यपात्र व्यक्तियों में हो सकता है। सोमदेव के अनुसार इन सबको की हई यथाशक्ति मदद भी त्याग या दान है। कामपात्र' शब्द की योजना के द्वारा सोमदेव स्त्रियों के बारे में एक अनोखा दृष्टिकोण प्रकट करते हैं । उनके अनुसार कामपात्र याने खुद की पत्नी । इस पुरुषप्रधान संस्कृति के माहौल में पत्नी के लिए किये हुए अर्थव्यय का इतना स्पष्ट उल्लेख बहत ही सराहनीय है। सबसे उल्लेखनीय बात यह है कि इन तीनों की पात्रता में उन्होंने तरतमभाव नहीं रखा है। तीनों को समान महत्त्व दिया है। ८) सदैव दुःस्थितानां को नाम बन्धुः । अर्थ : हमेशा दीन-दुःखी-दरिद्र - अवस्था में रहनेवाले का तारणहार आखिर कौन हो सकता है ? भावार्थ : सोमदेव की व्यावहारिकता और सामाजिक भान इस सूत्र में अधिकता से अधोरेखित होता है । विशेषतः भारत जैसे देश में दीन-दुःखी-दरिद्र लोगों की बिलकुल भी कमी नहीं है। किसी भी सामान्य गृहस्थ के लिए, चाहे वह कितना भी दानी क्यों न हो, आम जनता का दैन्य-दारिद्र्य दूर करना सर्वथा अशक्यप्राय बात है। न्यायमार्ग से अर्जित अपनी सम्पत्ति में से, विशिष्ट धनराशि खर्च करना यह नि:संशय सराहनीय है। तथापि इस सत्कार्य की भी अपनी एक मर्यादा है। सोमदेव चाहते हैं कि प्रासंगिक दान देना ठीक है लेकिन यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि दान से वह व्यक्ति परावलम्बी न हो । ऐसे लोगों को अर्थप्राप्ति के मार्ग दिलाना और दिलवाना भी एक प्रकारका दान ही है।

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