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वजह से किसी भी धर्म सम्प्रदाय के देव-देवताओं को ध्यान में रखकर मंगलाचरण नहीं दिया है । एक सुजाण नागरिक होने के कारण राज्य को अथवा राष्ट्र को नमन किया है।
२) यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः । अर्थ : जिसके आचरण से अभ्युदय और निःश्रेयस की प्राप्ति होती है वह धर्म है। भावार्थ : ‘अभ्युदय' का मतलब है ऐहिक समृद्धि और 'निःश्रेयस' का मतलब है स्वर्ग और मोक्ष रूप पारलौकिक हित की सिद्धि । धर्म' शब्द की कई परिभाषाएँ दी जाती है । लेकिन सोमदेव चाहते हैं कि उनकी परिभाषा किसी भी विशिष्ट धर्म से निगडित न हो । विशिष्ट धर्मों से उपर उठकर उन्होंने पारलौकिक हित के साथ-साथ, ऐहिक समृद्धि को भी धर्म का फल माना है । सुदृढता से अनुशासित और समृद्ध राज्य में ही इस प्रकार के उभय फलदायी धर्म पालन की सम्भावना है । इसी वजह से राज्य या राष्ट्र को वन्दन करके उसके अनन्तर धर्म की व्याख्या दी है।
३) अधर्मः पुनरेतद्विपरीतफलः । अर्थ : अधर्माचरण इससे विपरीत फल देता है । भावार्थ : धर्माचरण कल्याणकारी है और अधर्माचरण पाप, अशुभ और अकल्याण से सम्बन्धित है । सोमदेव का मतलब है कि अगर व्यक्ति हिंसा, चोरी, असत्य आदि दुर्गुणों का सहारा ले तो वह न ऐहिक समृद्धि का भागी होता है और न स्वर्ग-मोक्ष आदि का भागी होता है । मद्य-मांस और स्त्री सेवन आदि व्यसन भी अधर्माचरण में निहित हैं।
४) सर्वसत्वेषु हि समता सर्वाचरणानां परमाचरणम् । अर्थ : सब प्राणिमात्रों के प्रति समभाव की भावना और समतापूर्ण आचरण ही सब प्रकार के आचरणों में श्रेष्ठ आचरण है। भावार्थ : समता का मतलब है किसी के प्रति वैरभाव न रखना । सोमदेव चाहते हैं कि स्नान, दान, जप, होम आदि बाह्य क्रियाकाण्डों से अधिक महत्त्वपूर्ण है, भूतमात्रों के प्रति समभाव और दयापूर्ण आचरण । महत्त्वपूर्ण बात यह है कि भारतीय संविधान में भी समता याने equanimity को राष्ट्रीय दृष्टि से महत्त्वपूर्ण मूल्य माना है।
५) तद्वतमाचरितव्यं यत्र प संशयत्लामारोहतः शरीरमनसी। अर्थ : उस व्रत का आचरण करें, जिसको स्वीकार कर शरीर और मन दोलायमान अवस्था में न जाये । भावार्थ : धर्माचरण के लिए सामान्य गृहस्थ स्त्री-पुरुष को आवश्यक है कि वे किसी न किसी स्वरूप में व्रतों का आचरण करें । सोमदेव ने किसी भी विशिष्ट परम्परा के विशिष्ट व्रतों का निर्देश यहाँ नहीं किया है । व्रत या नियम कुछ भी हो लेकिन उसका अंगीकार करने पर उसे आखिर तक निभाना ही चाहिए । शरीर
और मन दोनों को पीडादायक व्रत, व्रती के मन में सन्देहावस्था उत्पन्न करता है । वह चाहने लगता है कि यह पीडादायक व्रत बीच में ही छोडू । तात्पर्यार्थ से सोमदेव चाहते हैं कि व्रत का स्वीकार अपने शक्ति के अनुसार करें । क्लेशदायक अनुष्ठानों को वे व्रत की कोटि में नहीं रखना चाहते। ___अन्यत्र सोमदेव कहते हैं कि यद्यपि व्रत या नियम का ग्रहण वांछनीय है तथापि जिसके मन में वैररहित अहिंसाभाव नित्य उपस्थित है, वह व्यक्ति व्रत ग्रहण के बिना भी स्वर्ग का भागी हो सकता है।
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