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पाँच-पाँच भावनाएँ यहाँ स्पष्ट की है । इसके अलावा मैत्री-प्रमोद-कारुण्य और माध्यस्थ इन चार नैतिक गुणों का प्रकर्ष भी यहाँ महत्त्वपूर्ण बताया है।
अहिंसा इत्यादि व्रतों की व्याख्याएँ नहीं दी है । परन्तु हिंसा-असत्य-चौर्य-अब्रह्मचर्य और परिग्रह इन पाँच मुख्य दुर्गुणों की व्याख्या देने का सफल प्रयास किया है । व्रत के बारे में मुख्यत: कहा है कि, सच्चा व्रती बनने के लिए पहली शर्त यह है कि 'शल्य' का त्याग किया जाय । शल्य तीन हैं । वे मानसिक दोष हैं । दंभ, कपट, भोगलालसा और असत्य का पक्षपात हमें पहले छोडना चाहिए । उसके बिना खुद को व्रती कहना', ढोंग है।
इस अध्याय के पन्द्रहवें और सोलहवें सूत्र में समग्र श्रावकधर्म का निरूपण है । साधुधर्म और श्रावकधर्म के पश्चात् संलेखना याने संथारा का कथन किया है । अठारहवें सूत्र से लेकर, बत्तीसवें सूत्र तक, श्रावकव्रतों के अतिचारों का विस्तृत वर्णन है । अन्तिम दो सूत्रों में 'दान' की विशेषता बतायी है।
सारांश में हम कह सकते हैं कि, यद्यपि इसमें व्रत का सामान्य वर्णन है तथापि यह अध्याय गृहस्थ या श्रावक की दृष्टि से अनन्यसाधारण महत्त्व रखता है ।
अध्याय ८ : बन्ध ___ यहाँ बन्ध का अर्थ है 'कर्मबन्ध' । आस्रव के द्वारा आत्मप्रदेश में प्रविष्ट कर्मपरमाणु आत्मा के साथ बन्धे जाते हैं । यह अध्याय इसलिए महत्त्वपूर्ण है कि जैन तत्त्वज्ञान का मूलाधार जो कर्मसिद्धान्त, वह अच्छी तरह से समझने के लिए इस अध्याय के आकलन की नितान्त आवश्यकता है ।
पहले सूत्र में बन्ध के पाँच हेतु याने कारण बताये हैं । यद्यपि पाँचों महत्त्वपूर्ण है तथापि जैसे कि पहले बताया है ‘कषाय' और 'योग' ये दो हेतु अधिक महत्त्वपूर्ण हैं । दूसरे और तीसरे सूत्र में बन्ध की संक्षिप्त
और सारगर्भ व्याख्या दी है । चौथे सूत्र में बन्ध के चार मुख्य प्रकार बताये हैं । वे इस प्रकार हैं - प्रकृतिबन्ध, प्रदेशबन्ध, स्थितिबन्ध और अनुभावबन्ध ।
प्रकृतिबन्ध में मूल प्रकृति और उत्तर प्रकृतियों का निर्देश है । ज्ञानावरण, दर्शनावरण आदि आठ कर्मों को मूल प्रकृति कहा है । आठ मूलप्रकृतियों के क्रमश: पाँच, नौ, दो, अट्ठाईस, चार, बयालीस, दो तथा पाँच भेद बताये हैं । नामकर्म की बयालीस प्रकृतियों में हरएक व्यक्ति की सारी गुणसूत्रविषयक विशेषतायें तथा शारीरिक-मानसिक विशेषतायें विस्तार से बतायी है ।
प्रकृतिबन्ध के विस्तृत विवेचन के बाद स्थितिबन्धविषयक सूत्रों में आठ कर्म आत्मा के साथ रहने की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति बतायी है ।
अनुभावबन्धविषयक सूत्र तीन हैं । वे बहुतही संक्षिप्त हैं।
प्रदेशबन्धविषयक सूत्र में कर्मपरमाणुओं के स्कन्ध और आत्मा, इनके सम्बन्ध के बारे में अनेक दृष्टि से आठ प्रश्न उपस्थित किये हैं। जिनके उत्तर सूत्र के एकेक शब्द के आधार से, हम दे सकते हैं।
लक्षणीय बात यह है कि यद्यपि व्यवहार में पुण्यपाप को अत्याधिक महत्त्व दिया जाता है तथापि अध्याय के अन्तिम सूत्र में, आठ पुण्यप्रकृतियाँ दी है और कहा है कि शेष सभी प्रकृतियाँ पापरूप है । तत्त्वार्थसूत्र की यह मान्यता बाद में दृढमूल नहीं हुई । अन्य ग्रन्थों में इसका विस्तार किया गया । अन्तिमतः पुण्यरूप में ४२ प्रकृतियाँ और पापरूप में ८२ प्रकृतियाँ तय की गयी।
सारांश में हम कह सकते हैं कि, बन्ध तत्त्व का वर्णन करनेवाला यह अध्याय कर्मसिद्धान्त की दृढ पृष्ठभूमि है । इसी के आधार से आगे जाकर सैंकडों कर्मग्रन्थ श्वेताम्बर और दिगम्बर आचार्यों ने बनाये ।
अध्याय ९ : संवर-निर्जरा
तत्त्वों की गिनती में आस्रव और बन्ध के बाद क्रमश: संवर और निर्जरा तत्त्व आता है । इस अध्याय में संवर और निर्जरा, दोनों का एकत्रित निरूपण है । आस्रव का निरोध करना ‘संवर' है । वह संवर गुप्ति
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