Book Title: Jainism Course Part 02
Author(s): Maniprabhashreeji
Publisher: Adinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi

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Page 16
________________ परन्तु कर्म को कुछ और ही मंजूर था। छोटी उम्र में उनकी काया रोग ग्रस्त बन गई। अच्छे से अच्छे वैद्य से इलाज़ करवाने पर भी रोग के निकलने का कोई नाम तक नहीं था। उनकी अस्वस्थता के कारण उनके पिताजी तथा प्रजाजन चिंतित ही रहते थे। 'सम्यक् पुरुषार्थ करना और फिर जो भी परिणाम आये, उन्हें सहर्ष स्वीकार कर लेना' परमात्मा के यह वचन नृपदेवसिंह ने मानो आत्मसात् कर लिए हो, इसी कारण उन्हें अपने शरीर की कोई विशेष चिंता नहीं रहती थी। परंतु एक दिन परिस्थिति अत्यंत नाजुक बन गई, मृत्यु की शय्या पर सोये नृपदेवसिंह अपने जीवन की अंतिम घड़ियाँ गिनने लगे। पिता कुमारपाल परिस्थिति की गंभीरता को समझ गए। उन्होंने अपने पुत्र की समाधि को टिकाने एवं अंतिम निर्यामणा करवाने के लिए तुरंत अपने गुरु कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य को राजमहल में बुलवाया। आचार्यश्री भी नृपदेवसिंह की अंतिम अवस्था जानकर तुरंत आ गए। उन्हें आते देख नृपदेवसिंह अपनी शय्या पर बैठे और विनय पूर्वक गुरु भगवंत को भाव से वंदन किए। आचार्यश्री ने भी उनके मस्तक पर हाथ रखकर धर्मलाभ का आशीर्वाद दिया। नृपदेव को देखते ही आचार्यश्री जान गये कि अब कुछ ही देर में इसका जीवन दीप बुझने वाला है। इसलिए गुरुदेव ने प्रेम-पूर्वक उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा - आचार्यश्री - "नृपदेवसिंह सावधान तो हो ना? मन स्थिर तो है ना?" नृपदेवसिंह ने प्रसन्नता पूर्वक कहा- “जी हाँ गुरुदेव! पूर्ण रूप से सावधान हूँ एवं मन भी अरिहंत में लीन है।" आचार्यश्री- “नृपदेव! वर्षों से इस धरती को दुर्लभ ऐसे जीवमित्र तथा प्रभुभक्त महाराजा कुमारपाल तुम्हें पिता के रूप में मिले है। इतना बड़ा सौभाग्य तुम्हें प्राप्त हुआ है इस बात का आनंद अपने हृदय में महसूस करते रहना।" आचार्यश्री की यह बात सुनते ही नृपदेवसिंह चौ-धार आँसूओं से रोने लगे। नृपदेवसिंह को इस प्रकार रोता देख आचार्यश्री ने आश्चर्यचकित होकर कहा- "नृपदेवसिंह क्या बात है ? क्षत्रिय होकर भी तुम रो रहे हो? क्या तुम्हें मृत्यु से डर लग रहा है? यह क्या? देव-गुरु की निरंतर उपासना करने वाले, जीवदया के पालक, श्री नमस्कार महामंत्र का ध्यान करने वाले, श्री शत्रुजय तीर्थ को हृदय में बसाने वाले ऐसे वीर नृपदेवसिंह की आँखों में मृत्यु के समय आँसू होने चाहिए या आनंद? नृपदेवसिंह ने कहा - हे गुरुदेव! ये आँसू दुःख या वेदना के नहीं है। ना ही मृत्यु के डर के है। आचार्यश्री - " तो फिर क्या बात है नृपदेव।" । नृपदेवसिंह - "गुरुदेव! मेरे पिताजी ने राजगद्दी जरुर प्राप्त की, परंतु वे कंजूस बन गए। उन्होंने मंदिर तो बहुत बनवाएँ पर या तो लकड़े के या पत्थर के। मेरे मन में सतत एक ही भावना थी कि मैं भी बड़ा बनकर अपने पिता की तरह मंदिर का निर्माण करवाऊँगा, परंतु लकड़े या पत्थर के नहीं अपितु स्वर्ण के मंदिर बनवाऊँगा। 000

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