Book Title: Jainism Course Part 02
Author(s): Maniprabhashreeji
Publisher: Adinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi

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Page 15
________________ जेठानी की यह आभूषण पूजा देख रही थी...घर की दासी। उसका नाम था शोभना। शोभना का शरीर भी एक लाख सोना मोहर के मूल्य वाले गहनों से शोभित था। प्रभु भक्ति की यह अद्भुत छटा देखकर उसका हृदय भी पिघल उठा और वह बोली - 'अरे सेठानीजी ! यदि आपको गहनों की नहीं पड़ी है, तो मुझे भी नहीं चाहिए ये गहने। ऐसा कहते हुए उसने भी अपने सारे आभूषण प्रभु के चरणों में समर्पित कर दिये। मंदिर के एक कोने में खड़े रहकर इस भक्ति को देख रहे थे धाईदेव श्रावक जो देवगिरि से यात्रा करने के लिये आये थे। अलंकार पूजा की यह स्पर्धा देखकर उनसे भी रहा नहीं गया। उनके पास हीरे, मोती, माणेक, परवाला तथा सोने के फूल आदि जो कुछ भी थे। उससे प्रभु की आंगी रचकर नौ लाख चंपा के फूलों से प्रभु की पुष्पपूजा की। वाह! अनुपमा! वाह! शाबाश! धन्य है तुम्हें! तुम गहने उतार भी सकती हो और दूसरों के उतरवा भी सकती हो। वाह! ललितादेवी! वाह! देवरानी के कदमों पर चलकर तुमने भी कमाल कर दिया! और दासी शोभना! तुम्हारे हृदय को भी नमस्कार है। तुम्हारा यह समर्पण कभी भुलाया न जा सकेगा। ____ओ महामात्य वस्तुपाल एवं तेजपाल! आप भी धन्य है। प्रियतमाओं ने लाखों के गहने न्यौछावर कर दिये, फिर भी उन्हें न डाँटा, न फटकारा, न धमकाया। अरे ऊपर से आनंदित होकर प्रभु भक्ति की अनुमोदना की! यदि दिल में प्रभु न बसे हो तो, ऐसी उदारता आए भी कहाँ से? वंदन है आपकी उदारता को! नमन है आपके भक्ति भरे हृदयों को! अनुपमा, ललिता और शोभना ने जितनी किंमत के अलंकार भगवान को चढ़ाये, उससे भी अधिक किंमत के गहने वस्तुपाल मंत्री ने सबको पुन: नये बनवाकर दिये। । बाप से बेटा सवाया ( परमात्मा महावीर स्वामी के परम भक्त मगध सम्राट श्रेणिक थे। वे परमात्मा की उपस्थिति में जितना अमारी प्रवर्तन नहीं करा सके। उससे भी कई गुना अधिक अमारी प्रवर्तन परमात्मा की सर्वथा अनुपस्थिति में अठारह-अठारह देशों में करने का सफल पुरुषार्थ करने वाले ऐसे कुमारपाल राजा और उनके एक मात्र पुत्र थे- नृपदेवसिंह। फल के आधार पर जिस प्रकार बीज का निर्णय किया जाता है, उसी प्रकार पिता के संस्कार देखकर पुत्र के संस्कारों का निर्णय किया जा सकता है। यह बात नृपदेवसिंह के जीवन से प्रत्यक्ष झलकती थी। अपने पिता की तरह नृपदेवसिंह भी जीवदया के विषय में कट्टर थे। इनके पिता की प्रभुभक्ति गजब थी तो इनकी प्रभुभक्ति भी कुछ कम नहीं थी। सभी लोग नृपदेवसिंह को जिनशासन प्रभावक की नज़र से देखते थे। 005

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