Book Title: Jain Yuga Nirmata
Author(s): Mulchandra Jain
Publisher: Digambar Jain Pustakalay

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Page 8
________________ वत्सलजीकी लेखनी इतनी सरल व सुबोध होती है कि उसे पढ़नेसे मन नहीं हठता। अतः इस चरित्र ग्रन्थका अधिकाधिक प्रचार हो इसलिये हमने इसे प्रकट करना उचित समझा है । आशा है इस प्रथम आवृत्ति का शीघ्र ही प्रचार हो जायगा। इसमें कोई त्रुटि रह गई हो तो सुज्ञ पाठक उन्हें सूचित करनेकी कृपा करें ताकि वे दूसरी आवृत्तिमें सुधर सके। ऐसे महान ग्रन्थका संपादन करनेवाले पंडित वत्सलजी जैन समाजके महान् उपकारके पात्र है, तथा हम भी आपके परम उपकारी हैं कि आपने ऐसी महान् कथा-ग्रन्थकी रचना प्रकाशनार्थ भेज हमें कृतार्थ किया, अतः आप अतीव धन्यवादके पात्र है। निवेदकःसूरत-वीर सं०२४७७ ) मूलचन्द किसनदास कापड़िया श्रावण सुदी १५ ता० १७-८-५१. -प्रकाशक ।

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