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समझना चाहिये । क्योंकि इस अवस्था में मतिज्ञान के भेदरूप संस्कार का मूल नाश हो जाता है अर्थात् वहाँ वृत्तिरूप भाव मन नहीं रहता । अथवा यों कहो कि वलज्ञान किंवा असंप्रज्ञात-समाधि के उपलब्ध होने पर वृत्तिरूप भाव मन की आवसकता ही नहीं रहती, मन के द्वारा विचार तो केवल मति और श्रत ज्ञान में ही
या जाता है। बाकी के तीन–अवधि, मनःपर्यव और केवल-ज्ञानों में उसकी-मन पी. आवश्यकता ही नहीं रहती। इन तीन ज्ञानों में तो आत्मा को स्वयमेव ही-मन की सहायता के बिना-वस्तुतत्व के स्वरूप का यथार्थ भान होने लगता है और पौदहवें-अयोग-केलिगुणस्थान में मन, वचन, काया के स्थूल-सूक्ष्म समस्त योगोंयापारों के निरुद्ध हो जाने पर शैलेशीभाव से निर्वाणपद की प्राप्ति होती है। ही सर्ववृत्तिनिरोधरूप असंप्रज्ञात-समाधि की प्राप्ति के अनन्तर पतञ्जलिप्रोक्त रुषार्थशून्य गुणों का प्रतिप्रसव किंवा स्वरूपप्रतिष्ठारूप कैवल्य-मोक्ष-है।
इस प्रकार वृत्तिसंक्षय की इस व्यापक व्याख्या में योग के समस्त प्रकारों को मन्वित किया गया है ।
वास्तव में विचार किया जाय तो महर्षि पतञ्जलि के चित्तवत्तिनिरोधरूप और हरिभद्रसूरि के वृत्तिसंक्षयरूप योगलक्षण में केवल वर्णन और संकेत शैली की बभिन्नता के अतिरिक्त तात्त्विक भेद कुछ भी नहीं है।
उक्त योगपञ्चक का आगमसम्मत संवरपञ्चक में अन्तर्भाव तथा अध्यात्म से कर वत्तिसंक्षयपर्यन्त योग के उक्त पाँच भेदों का समवायांग सूत्र में बतलाये गये वर के १. सम्यक्त्व', २. विरति, ३. अप्रमत्तता, ४. अकषायता, और ५. अयोगित्व, न पाँचों भेदों में ही अन्तर्भाव हो जाता है । यथा-सम्यक्त्व और विरति में ध्यात्म और भावना का, अप्रमत्त और अकषाय भाव में ध्यान और समता का एवं योगित्व में वृत्तिसंक्षय का समावेश हो जाता है। इसलिये यह आगमसम्मत योग ही विशिष्ट स्वरूप है।
समितिगुप्तिस्वरूप-विचारणा जैसे कि प्रथम भी कहा गया है—योग के स्वरूप के योग-निर्णय में मन की मिति और गुप्ति को सब से अधिक विशेषता प्राप्त है । उत्तके-योग के-चित्तवृत्तिरोध-लक्षण में जो अड़चन प्राप्त होती है उसका निराकरण भी समिति-गुप्ति के थार्थ स्वरूप को समझ लेने पर ही हो सकता है । समिति-मनःसमिति में मन की
रोध के कारण परवैराग्य के अभ्यास से संस्कार शेषरूप चित्त की स्थिरता का नाम सिंप्रज्ञात-योग है-तात्पर्य कि असंप्रज्ञात-समाधि में निरुद्धचित्त की समस्त वृत्तियों का य हो जाने से संस्कार शेष रह जाता है। 'सर्ववृत्तिप्रत्यस्तसमये संस्कारशेषो रोधश्चित्तस्य समाधिरसंप्रज्ञातः ।' (व्यासभाष्य)
१. 'पंच संवरदारा पण्णत्ता तंजहा–सम्मत्तं, विरई, अप्पमाया, अकसाया, योगया।'
(५ समवाय, सूत्र १०)
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