Book Title: Jain Yog Siddhanta aur Sadhna
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Aatm Gyanpith

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Page 457
________________ जैन योग : सिद्धान्त और साधना इस पद की साधना के चार सोपान हैं- (१) अक्षर ध्यान, (२) पद ध्यान, (३) पद के अर्थ का ध्यान और (४) अर्हत स्वरूप का ध्यान । ३७८ प्रथम सोपान - इसमें इस प्रथम पद ' णमो अरिहंताणं' के एक-एक अक्षर का ध्यान किया जाता है । नासाग्र दृष्टि रखकर अथवा पलक बन्द करके सर्वप्रथम 'ण' अक्षर का ध्यान करें। ऐसा महसूस हो जैसे अनन्त आकाश में श्वेत वर्णका - स्फटिक के समान श्वेत वर्ण का 'ण' अक्षर उभर रहा है । वह अक्षर लगभग १ मीटर (तीन फीट) लम्बा है । बहुत ही चमकदार है । उसमें से श्वेत रंग की प्रकाश किरणें निकल रही हैं । उसकी ज्योति चारों ओर विकीर्ण हो रही है । उससे समूचा आकाश ही सफेद रंग का हो गया है । इसके उपरान्त उस अक्षर के आकार को घटाते जायँ, कम करते जायँ और बिन्दु के समान अति सूक्ष्म कर लें; किन्तु ज्यों-ज्यों अक्षर का आकार घटे उसका चमक बढ़ती जाना चाहिए । इसी प्रकार इस पद के शेष अक्षरों 'मो' 'अ' 'रि' 'हं' 'ता' 'णं' को कल्पना से लिख और उनका ध्यान करें । द्वितीय सोपान - अब सम्पूर्ण 'णमो अरिहंताणं' पद का ध्यान करें । इस. पूरे पद को साक्षात अनन्त आकाश में लिखा देखें । पहले इसके स्थूल रूप, अर्थात् बड़े-बड़े अक्षरों का ध्यान करें; फिर समूचे पद का आकार घटाते जायँ किन्तु चमक बढ़ाते जायँ और इसे बिन्दु तक ले आवें । फिर आकार बढ़ावें और समस्त आकाश में व्याप्त कर दे, तदुपरान्त आकार घटाते हुए बिन्दु. तक ले आवें । इस घटाने-बढ़ाने के क्रम में चमक बढ़ती रहनी चाहिए और सम्पूर्ण आकाश स्फटिक के समान श्वेत रहना चाहिए । इस प्रकार इस पूरे पद का बार-बार ध्यान करें और अभ्यास इतना दृढ़ कर लें कि जब भी आप इच्छा करें और पलके बन्द करें तो यह पूरा पद आपको श्वेत वर्णी दिखाई देने लगे । तृतीय सोपान -- इस पद को श्वेत वर्ण से लिखा हुआ देखने के साथसाथ इस पद के अर्थ का चिन्तन करें । इस पद का अर्थ है-अरितों को नमस्कार । अरिहंत अनन्त चतुष्टय के धनी होते हैं । अनन्त चतुष्टय हैंअनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख और अनन्त वीर्य । अरिहत - अठारह दोषों से रहित होते हैं, हित- मित-प्रिय वचन बोलते हैं, सर्वज्ञ - सर्वदर्शी होते हैं, आदि-आदि। अरिहंतों के गुणों का चिन्तवन करें । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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