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जन योग : सिद्धान्त और साधना
शुक्लध्यान के भेद
शुक्लध्यान के चार भेद बताये हैं-(१) पृथक्त्ववितर्क सविचार (२) एकत्ववितर्क अविचार (३) सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाती और (४) व्युपरतक्रिया निवृत्ति ।
इन में से प्रथम दो ध्यान (पृथक्त्ववितर्क सविचार और एकत्ववितर्क अविचार) आठवें से बारहवें गुणस्थान अर्थात् छद्मस्थ योगी को होते हैं और शेष दो ध्यान सर्वज्ञ केवलज्ञानी को होते हैं। इनमें से भी चतुर्थ ध्यान केवली को भी आयु के अन्तिम भाग में होता है।
प्रथम दो भेदों में बाह्य अवलंबन की आवश्यकता तो बिल्कुल नहीं रहती किन्तु श्र तज्ञान और योग का अवलंबन रहता है तथा अन्तिम दो ध्यानों में किसी भी प्रकार का अवलम्बन नहीं रहता। इस अपेक्षा से शुक्लध्यान के प्रथम दो भेद सावलंबन और अन्तिम दो भेद निरवलम्बन होते हैं।
यद्यपि तेरहवें गुणस्थानवर्ती केवलज्ञानी परमात्मा सयोगी होते हैं, अर्थात् उनके मन-वचन-काया तीनों योग होते हैं और इन तीनों योगों का व्यापार भी होता है-अर्थात् वे धर्मोपदेश भी देते हैं और गमनागमन किया भी करते हैं किन्तु उनका शुक्लध्यान (सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाती) इन योगों के आश्रित नहीं होता; योग वहाँ द्रव्य रूप से उपस्थित रहते हैं, भावरूप से नहीं।
अतः इस अपेक्षा से, अर्थात् योगों की अपेक्षा से
(१) पृथक्त्ववितर्क सविचार शक्लध्यान-तीनों योग वाले को, मनवचन-काया-इन तीनों योग वालों को;
(२) एकत्ववितर्क अविचार शुक्लध्यान-तीनों में से किसी एक योग वाले को;
(३) सूक्ष्म क्रिया अप्रतिपाती शुक्लध्यान-केवल काय योग वालों को;
(४) समुच्छिन्न क्रिया निवृत्ति शुक्लध्यान-सर्वयोगरहित अयोगी; को होता है।
१. व्येकयोगकाययोगायोगानाम् ।
-~-तत्त्वार्थ सूत्र ६/४२
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