Book Title: Jain Yog Siddhanta aur Sadhna
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Aatm Gyanpith

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Page 434
________________ प्राण शक्ति की अद्भुत क्षमता और शारीरिक एवं मानसिक स्वस्थता ३५५ का एक प्रमुख कारण भी है, और वह यह कि प्राणी के शरीर में जितनी भी विद्यत उत्पन्न होती है, उसका २०% यह मन ले लेता है, बाकी में शरीर की सम्पूर्ण क्रियाओं आदि का संचालन होता है अतः शरीरस्थित करोड़ों जीव कोषों को विद्यु त का बहुत ही अल्प भाग मिलता है, अतः वे मस्तिष्कस्थित मन के समान शक्तिशाली और सक्षम नहीं बन पाते और अक्षम एवं संज्ञाशून्य से बने रहकर मस्तिष्कीय मन (master brain) की आज्ञा का पालन करते रहते हैं। उनकी चेतना और संज्ञा अव्यक्त रहती है। यदि किसी प्रकार इन जीव कोषों को मस्तिष्कीय मन जितनी विद्य त मिल जाय तो ये भी उसी के समान सम्पूर्ण क्रियाएँ कर सकते हैं यथा प्राणी सम्पूर्ण शरीर से अथवा शरीर के किसी भी अंगोपांग से देख सकता है, सूघ सकता है, विचार कर सकता है यानी व्यक्त मन जैसी सभी क्रियाएँ कर सकता है। फिर भी प्राणी के शरीर-स्थित सभी जीव कोष और उनमें अवस्थित मन, अव्यक्त रूप से ही सही, आवेग-संवेग, पाप-पुण्य आदि सभी प्रकार की क्रियाएँ सतत करते रहते हैं।' जब तक मस्तिष्कीय मन और संपूर्ण शरीरस्थित असंख्य मन में समन्वय बना रहता है, ये मन मस्तिष्कीय मन की आज्ञापालन करते रहते हैं तब तक मनुष्य का मनोमय कोष व्यवस्थित रहता है, मनुष्य मानसिक रूप से स्वस्थ रहता है और जब कभी तथा किसी भी कारण से इस १ जैन आगमों में व्यक्त (मस्तिष्कीय) मन वाले प्राणियों को संज्ञी और अव्यक्त (जीवकोषीय) मन वाले प्राणियों को असंज्ञी बताया है। भगवान महावीर ने सभी प्राणियों (यहाँ तक कि एकेन्द्रिय जीव भी जो हलन-चलन आदि क्रियाएँ नहीं करते; जैसे वनस्पति कायिक, पृथिवीकायिक आदि जीवों को भी) को अठारह पापों (हिंसा, झूठ, चोरी आदि से मिथ्यादर्शन शल्य तक) का सेवन करने वाला तथा पाप-बंध करने वाला बताया है। सामान्य बुद्धि वाले और इन जीव कोषों के रहस्य को न समझने वाले बुद्धिजीवी भी भगवान के कथन पर शंका करते हैं कि वनस्पति बोलती नहीं तो झूठ कैसे बोलेगी, इसी तरह चोरी भी नहीं कर सकती तथा अन्य पापों का सेवन भी नहीं कर सकती, परिणामस्वरूप उसे कर्मबन्ध भी नहीं होना चाहिए । ऐसे लोगों का समाधान जीव कोषों के उपरोक्त परिचय से होना चाहिए कि अव्यक्त मन वाले प्राणी भी सभी प्रकार के पापों का बन्ध करते हैं । ---सम्पादक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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