________________
३५४
जैन योग : सिद्धान्त और साधना
मानसिक एवं शारीरिक रोग : कारण और उपचार
वैसे तो सभी रोगों का कारण तैजस् अथवा प्राण शरीर है, सभी रोगों का मूल स्थान वह है किन्तु चिकित्साशास्त्र की दृष्टि से रोगों के दो भेद किये जाते हैं-(१) मानसिक रोग और (२) शारीरिक रोग । शारीरिक रोग विशेष रूप से शरीर से सम्बन्धित होते हैं, उनके लक्षण भी शरीर में दिखाई देते हैं और शरीर पर औषधि प्रयोग से ठीक भी हो जाते हैं। मानसिक रोग मन अथवा मस्तिष्क से सम्बन्धित होते हैं, इनके उपचार की प्रणाली भी अलग है, इनको ठीक करने के लिए विद्य त झटके (electric shocks) आदि पद्धतियाँ अपनाई जाती हैं । मानसिक रोगों में हिस्टीरिया (Hysteria), पागलपन, खण्डित व्यक्तित्व (Frustrated personality), विभाजित व्यक्तित्व (Divided personality) आदि मुख्य हैं। मन का स्वरूप एवं लक्षण
मानसिक रोगों को समझने के लिए पहले मन का स्वरूप, उसका लक्षण, शरीर में उसकी स्थिति आदि बातों का जानना जरूरी है।
हम लोग चेतना के स्तर पर जीते हैं, विचारों के स्तर पर तैरते हैं, आवेग-संवेगों से संचालित होते हैं, तर्क के आधार पर निर्णय लेते हैं और भावनाओं के अनुसार कार्य करते हैं। इसलिए 'मन' शब्द से तुरन्त 'मस्तिष्क' का अभिप्राय लगा लेते हैं-मस्तिष्क वह जो हमारे कपाल में स्थित है और मन का भी केवल सात प्रतिशत भाग जिसके द्वारा हमारे आवेग-संवेग और क्रियाएँ संचालित होती हैं । इस मन के ६३ प्रतिशत भाग तक हमारी दृष्टि ही नहीं जाती क्योंकि वह हमारे अनुभव में प्रत्यक्ष नहीं होता।
मन सिर्फ मस्तिष्क में ही अवस्थित नहीं है, वरन् वह प्राणी के संपूर्ण शरीर में व्याप्त है। आधुनिक शरीरविज्ञान के अनुसार भी जितने जीव कोष (cells) हैं, उन सबका अलग-अलग मन है, उनकी भी अपनी इच्छाएँ है, संवेग हैं, आवेग हैं और वे अपने संवेगों-आवेगों द्वारा संचालित होते हैं तथा अपनी इच्छा पूरी करना चाहते हैं । और क्योंकि ये जीव कोष सम्पूर्ण शरीर में अवस्थित होते हैं, अतः मन भी सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त है। किन्तु इतना अवश्य है कि मन का सर्वाधिक शक्तिशाली केन्द्र मस्तिष्क-स्थित जीव कोष ही है अतः मस्तिष्क-स्थित मन की स्थिति राजा के समान है और शरीर. स्थित सम्पूर्ण जीव कोष (और उनमें स्थित मन) इस मस्तिष्क-स्थित मन की आज्ञा का पालन करते हैं। मस्तिष्क-स्थित मन के शक्तिशाली एवं राजा बनने
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org