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तितिमायोग साधना १६१ करता और अधिक मूल्य वाले वस्त्रों की प्राप्ति में हर्ष तथा गर्व नहीं करता, दोनों ही स्थितियों में सम रहता है।
अरति का अभिप्राय संयम के प्रति अधैर्य अथवा अनादर भाव है। श्रमणचर्या और संयम के प्रति मन में भी अरुचि उत्पन्न नहीं होने देता। यदि कभी मन में ऐसे भाव आ जायें तो वह उन्हें तुरन्त निकाल फेंकता है । अपने समत्व भाव को भंग होने नहीं देता।
स्त्रियों से साधक विशेष रूप से सावधान रहता है । वह उन्हें अपनी ब्रह्मचर्य साधना में विशेष रूप से बाधक मानता है । इसीलिए वह उनसे अधिक परिचय भी नहीं रखता । स्त्री के श्रृंगार काम-वर्धक होते हैं। अतः वह अपनी इन्द्रियों को, मनोवृत्तियों को कछुए के समान संकुचित कर लेता है। यहाँ स्त्री शब्द कामवासना का उपलक्षण है। अतः श्रमण कामवासना का निरोध करता हुआ पूर्ण ब्रह्मचर्य पालन करता है। वासनाजन्य तथा वासना से सम्बन्धित आवेगों-संवेगों-वासनागत कुण्ठाओं से अपने मन-मानस को उद्वेलित न होने देना, तथा समत्व की साधना में लीन रहना यही 'स्त्री परीषह जय' है।
__ श्रमण अपने कल्प के अनुसार मार्ग के कष्टों को सहता हुआ ग्रामानुग्राम विचरण करता है। उन कष्टों से वह आकुल-व्याकुल नहीं होता। इस प्रकार वह 'चर्या परीषह' पर विजय प्राप्त करता है। चर्या परीषह जय में साधक ममता से ऊपर उठकर समता की साधना करता है।
इसी प्रकार साधक श्रमण श्मशान आदि शून्य स्थानों में जब ध्यानस्थ होता है तो वह नियत काल के लिए वीरासन, पद्मासन आदि आसनों से अवस्थित होता है । उस समय वह देवकृत, मनुष्यकृत, तिर्यंचकृत सभी उपसर्गों को समभावपूर्वक सहन करता है, मन्त्र आदि से भी उनका प्रतिकार नहीं करता। इस प्रकार अपनी तितिक्षा के बल पर उन उपसर्गों को सहता है।
साधक श्रमण को जैसी भी शैय्या मिल जाय, उसी पर वह विश्राम कर लेता है, अच्छी शय्या पर अनुराग नहीं करता और कंकरीली-पथरीली शय्या पर द्वेष नहीं करता। दोनों में ही समभाव रखता है।
श्रमण को कोई गाली दे और यहाँ तक कि कोई उसका वध भी करे, उसके अंगों का छेदन-भेदन भी करे तो भी वह प्रशान्त बना रहता है, उसकी उपेक्षा ही करता है, गाली देने और प्रहार करने वाले पर रोष या आक्रोश
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