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१६४ जन योग : सिद्धान्त और साधना
(१) सामायिक-समभाव की साधना। (२) चतुर्विंशतिस्तव-तीर्थंकर देव की स्तुति ।' (३) वन्दन-सद्गुरुओं को नमन-नमस्कार। (४) प्रतिक्रमण-दोषों की अलोचना । (५) कायोत्सर्ग-शरीर के प्रति ममत्व त्याग एवं ध्यान ।
(६) प्रत्याख्यान-आहार तथा कषाय (क्रोध आदि) का त्याग । साधना का वैज्ञानिक क्रम
षडावश्यक के इन सभी अंगों का क्रम बहुत ही सोच-विचारकर वैज्ञानिक ढंग से रखा गया है । इस क्रम से साधना करने पर साधक उत्तरोत्तर उन्नति करता जाता है। साथ ही अपने दोषों का परिमार्जन करके आत्मशुद्धि के सोपान पार करता है।
सर्वप्रथम वह सामायिक में समत्वभाव की साधना करता है। समत्व भाव आने पर वह विषम भावों का विसर्जन करता है। विषम भावों के विसर्जन से उसकी चित्तवृत्ति स्वच्छ हो जाती है। तब वह अपने हृदयासन पर वीतराग तीर्थंकर देवों को विराजमान करता है, उनकी स्तुति द्वारा उनके गुणों को अपने जीवन में उतारने का प्रयास करता है, गुणों में लीन होता है।
भगवान महावीर ने कहा है-धम्मो सुखस्स चिडू-धर्म शुद्ध हृदय में ही स्थित हो सकता है, अतः वह सामायिक की साधना द्वारा हृदय भूमि को स्वच्छ बनाता है और चतुर्विशतिस्तव द्वारा वीतराग के गुणों को धारण करता है, तत्पश्चात् गुणी साधकों की वन्दना करता है, उनके प्रति भक्ति से विभोर हो जाता है।
इस प्रकार वह भक्तियोग की साधना करता है। भक्ति से उसके हृदय में नम्रता तथा सरलता आती है। सरलता आने पर वह अपने कृत दोषों, जो जाने-अनजाने अथवा विवशता के कारण हो गये हों, उनकी आलोचना करता है।
__ क्योंकि यह सर्वज्ञात तथ्य है कि सरल व्यक्ति अपने दोषों को पहचान सकता है और सच्चे हृदय से उनकी आलोचना कर सकता है। अपनी भूलों को जानने और उनकी आलोचना करके अपने अन्तर में स्वच्छता और शुद्धता लाने की प्रक्रिया ही प्रतिक्रमण है।
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