________________
१५८ जैन योग : सिद्धान्त और साधना
जिस प्रकार मनःसमिति का वर्णन आगमों में प्राप्त होता है, उसी का अनुसरण करते हुए वचन-समिति और काय-समिति का अभिप्राय साधक योगी समझ लेता है।
___इस प्रकार मन-वचन-काय-योग निवृत्ति ही नहीं; अपिपु सत्प्रवृत्ति भी योगमार्ग में अपेक्षित है। श्रमणयोगी चित्त को एकाग्र करके सिर्फ उसका निरोध ही नहीं करता, अपितु उसे धर्मध्यान और शक्लध्यान में प्रवृत्त भी करता है, क्योंकि मन कभी खाली नहीं रहता, कुछ-न-कुछ प्रवृत्ति करते रहना उसका स्वभाव है। अतः श्रमणयोगी के योग में निवृत्ति और प्रवृत्ति का उचित सामंजस्य रहता है । वह इन गुप्ति और समितियों (मन-वचन-काय को ध्यानयोग की अपेक्षा से) को अशुभ से हटाकर शुभ और शुद्ध में प्रवृत्त करके उनका योग (संयोग) आत्म-परिणामों के साथ करता है। यही मनवचन-काय-समिति-गुप्ति की योगी के योग-मार्ग और साधक जीवन में उपयोगिता तथा महत्त्व है। इस योग-मागे का अनुसरण करके वह अपने जीवन के चरम लक्ष्य की ओर बढ़ता है और उसे प्राप्त कर लेता है। समिति
समिति का लक्षण-समिति द्वारा श्रमणयोगी अपनी प्रत्येक प्रवृत्ति सम्यक रूप से करता है तथा अपने द्वारा स्वीकृत चारित्र का भली-भांति पालन करता है।
समिति के भेद-समितियाँ पाँच हैं-(१) ईर्या समिति, (२) भाषा समिति, (३) एषणा समिति, (४) आदान-निक्षेपण समिति और (५) परिष्ठापनिका समिति ।
(१) ईर्या समिति-ईर्या समिति विशेष रूप से काया से सम्बन्धित है । गमनागमन सम्बन्धी जितनी क्रियाएँ हैं, सभी ईर्या समिति के अन्तर्गत परिगणित की जाती हैं। यतनापूर्वक सावधानी से गमन-आगमन सम्बन्धी क्रियाएँ करना ईर्या समिति है।'
ईर्या समिति का पालन ४ प्रकार से होता है -(१) मालम्बन-साधक
१ (क) मग्गुज्जोदुपओगालम्बण सुद्धीहिं इरियदो मुणिणो ।
सुत्ताणुवीचि भणिदा इरिया समिदि पवणम्मि ।।--मूसाराधना ६/११६१ (ख) उत्तराध्ययन २४/४
(ग) ज्ञानार्णव १८/५-७ २ उत्तराध्ययन २४/५-८
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org