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४६ जैन योग : सिद्धान्त और साधना .
(६) धारणा (Concentration)-यह दो प्रकार की होती है-(१) बहिर्धारणा और (२) आन्तर धारणा ।
बाहरी पदार्थों जैसे-मृत्तिका पिण्ड, चित्र आदि में धारणा करना, बहिर्धारणा कहलाता है।
____ अन्तर्जगत् अथवा मनोमय जगत् में धारणा करने को आन्तर धारणा कहते हैं । पार्थिवी, आग्नेयी, वारुणी, वायवी आदि धारणाएँ आन्तर धारणा के ही अन्तर्गत मानी जाती हैं।
(७) दिव्य देश सेवन-धारणा की सिद्धि होने पर साधक का चित्त एकाग्रता की ओर उन्मुख होने लगता है, चित्तवृत्तियाँ शुद्ध होने लगती हैं।
(८) प्राणक्रिया- इस अंग में मन्त्रयोगी प्राण (कुम्भक, पूरक, रेचक) के सहारे मन्त्र जाप करता है।
(६) मुद्रा-यह ध्येय है। इसमें साधक अपने इष्टदेव अथवा गुरुदेव का कल्पना में चित्र बनाकर इनका ध्यान करता है।
(१०) तर्पण-इस अंग में मन्त्रयोगी साधक कल्पना चित्र रूप इष्टदेव अथवा गुरु को श्रद्धाभक्तिपूर्वक कल्पना में ही वन्दन करता है।
(११) हवन-इसमें मन्त्रयोगी साधक अपनी दुष्प्रवृत्तियों-काम-क्रोध, ईर्ष्या-द्वष आदि की आहुति देता है ।
(१२) बलि-मन्त्रयोगी साधक अपने विकारों का विसर्जन करके उनकी बलि देता है।
(१३) याग–याग का अभिप्राय मानसिक अर्चा-पूजा है।
(१४) जप-यह तीन प्रकार का है-(१) वाचिक, (२) उपांशु और (३) मानसिक । ये तीनों प्रकार के जप उत्तरोत्तर अधिक प्रभावशाली हैं। जप कर-माला अथवा नवकरवाली (माला) दोनों से किया जा सकता है। माला तुलसी, रुद्राक्ष, सूत अथवा मणियों की हो सकती है। कर-माला जप के भी ह्रीं आवर्त, ॐ आवर्त आदि अनेक प्रकार हैं।
(१५) ध्यान-यह मन्त्र योग का पन्द्रहवाँ अंग है । इसमें साधक अपने इष्टदेव का ध्यान करता है। देव का रूप उसके दृष्टि पटल पर प्रत्यक्ष हो जाता है । मन को एकाग्र करने का एकमात्र उपाय ध्यान ही है । ध्यान ही मोक्ष-कर्मबन्धन से मुक्ति कारण है।
(१६) समाधि-यह मन्त्र योग का सोलहवाँ तथा अन्तिम अंग है । जब साधक को अपने मन, जप मन्त्र तथा इष्टदेव का स्वतन्त्र बोध नहीं रहता
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