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जैन योग : सिद्धान्त और साधना
प्रयास करना चाहिए जिससे मेरा भवभ्रमण समाप्त हो जाय । वह अपनी आत्मा के भवभ्रमण को रोकने के लिए प्रयत्नशील होता है ।
(११) वोधिदुर्लभ भावना - इस भावना का हार्द सम्यक्ज्ञान, आत्मज्ञान की प्रतिष्ठा करना है । साधक यथार्थ ज्ञान का बार-बार अनुचिन्तन करता है ।
(१२) धर्म भावना - इस भावना द्वारा साधक धर्म के स्वरूप, उसके फल तथा माहात्म्य आदि के बारे में चिन्तन करके धर्म पर दृढ़ होता है । इन भावनाओं के बार-बार चिन्तन-मनन और अभ्यास से साधक का अध्यात्मयोग दृढ़ से दृढ़तर हो जाता है ।'
इन बारह भावनाओं में से अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व और लोक - ये पांच भावनाएँ धर्मध्यान में परिगणित की गई हैं तथा अन्यत्व, अशुचि, आस्रव, संवर निर्जरा, बोधिदुर्लभ और धर्म- ये सात भावनाएँ शुक्लध्यान के अन्तर्गत परिगणित की गई हैं । इन भावनाओं के सतत चिन्तन से साधक को धर्मध्यान- शुक्लध्यान की प्राप्ति होती है ।
३. ध्यानयोग
ध्यान का वर्णन जैन आगमों में अनेक स्थलों पर हुआ है । प्रश्नव्याकरण सूत्र में ध्यान का लक्षण देते हुए कहा है-
स्थिर दीपशिखा के समान निश्चल - निष्कम्प तथा अन्य विषय के संचार से रहित केवल एक ही विषय का धारावाही प्रशस्त सूक्ष्म बोध जिसमें हो, उसे ध्यान कहते हैं । "
इसी का अनुसरण करते हुए आचार्य हरिभद्रसूरि ने कहा है
शुभ प्रतीकों के आलम्बन पर चित्त का स्थिरीकरण - ध्यान कहा जाता है । वह ध्यान दीपक की लौ के समान ज्योतिर्मान तथा सूक्ष्म और अन्तः प्रविष्ट चिन्तन से समायुक्त होता है ।
१ भावनाओं के विस्तृत वर्णन के लिए 'भावना योग' (आचार्य श्री आत्माराम जी महाराज) पुस्तक देखें ।
निव्वायस रयणप्पदीपज्झाणमिव निप्पकम्पे । -प्रश्नव्याकरण,
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३ शुभकालम्बनं चित्तं ध्यानमाहुर्मनीषिणः । स्थिर प्रदीपसदृशं सूक्ष्माभोगसमन्वितम् ॥
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संवर द्वार ५
योगबिन्दु ३६२
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