Book Title: Jain Vidya evam Prakrit
Author(s): Gokulchandra Jain
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi

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Page 11
________________ विभाग को प्राप्त होता रहा है। १९८१ में आयोजित संगोष्ठी की सफलता का बहुत बड़ा श्रेय तत्कालीन कुलपति आचार्य बदरीनाथ शुक्ल को है। श्रमणविद्या संकाय द्वारा प्रस्तुत परिसंवाद माला के प्रकाशन का प्रस्ताव भी उन्हीं की अध्यक्षता में विद्यापरिषद् और कार्यपरिषद् ने स्वीकृत किया। हार्दिक कृतज्ञता के साथ हम उनका स्मरण करते हैं। श्रमणविद्या संकाय के तत्कालीन अध्यक्ष प्रोफेसर जगन्नाथ उपाध्याय परिसंवाद के इस प्रकाशन से सर्वाधिक प्रसन्न होते, किन्तु असमय में ही वे हमसे बिछुड़ गये। परिसंवाद का यह भाग उनके प्रति प्राकृत एवं जैनागम विभाग का अर्घ्यदान है। संगोष्ठी में स्थानीय संस्थाओं के साथ देशभर के जो प्रतिनिधि सम्मिलित हुए तथा संगोष्ठी को सफलतापूर्वक सम्पन्न करने में विश्वविद्यालय के जिन अध्यापकों, अधिकारियों एवं कर्मचारियों का योगदान रहा, उनका इस अवसर पर हम आदरपूर्वक स्मरण करते हैं। श्रमणविद्या संकाय के किसी भी विभाग के आयोजन को संकाय का सामूहिक उपक्रम मानने की प्रशस्त परम्परा रही है। तदनुरूप इस परिसंवाद के सम्पादक मण्डल में संकाय के पाँचों विभागों के विभागाध्यक्षों का सहभागित्व स्वीकार करते हुए मुझे हार्दिक प्रसन्नता है । परिसंवाद के इस भाग के प्रकाशन का निर्णय तत्कालीन कुलपति डॉ. रामकरण शर्मा के कार्यकाल में लिया गया था। उनका हम साभार स्मरण करते हैं। ___ इस परिसंवाद के प्रकाशन के समय तक वर्तमान कुलपति प्रोफेसर विश्वनाथ वेङ्कटाचलम् की अध्यक्षता और निर्देशन में प्राकृत एवं जैनागम विभाग ने राष्ट्रीय स्तर के दो महत्त्वपूर्ण आयोजन सम्पन्न किये। हमें पूर्ण विश्वास है कि उनके कुशल नेतृत्व में विभाग अन्य योजनाओं को क्रियान्वित कर सकेगा। उनके प्रति हम अपनी हार्दिक कृतज्ञता व्यक्त करते हैं। विश्वविद्यालय की प्रकाशन समिति तथा प्रकाशनाधिकारी डॉ० हरिश्चन्द्रमणि त्रिपाठी के सतत् सहयोग से इस परिसंवाद का सुरुचिपूर्ण प्रकाशन सम्भव हो सका। हम उनके हृदय से आभारी हैं और भविष्य में पूर्ण सहयोग के प्रति आशान्वित हैं। ज्ञान असीम है और कार्य का क्षेत्र व्यापक है । मानवीय क्षमता की सीमाएँ हैं सभी प्रकार की सावधानी रखते हुए भी त्रुटियाँ सम्भव हैं। परिसंवाद के इस भाग के सम्पादन-प्रकाशन में जो भी भूल-चूक रहो हो, उसके लिए क्षमाप्रार्थी हूँ। २५ जुलाई, १९८७ -गोकुलचन्द्र जैन परिसंवाद-४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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