Book Title: Jain Tattvasara
Author(s): Atmanandji Jain Sabha Bhavnagar
Publisher: Atmanand Jain Sabha

View full book text
Previous | Next

Page 209
________________ (२९) पूरायला केदीओ जेम परस्पर संमर्दनथी पीडाया छता आमाथी कोइ मरे अथवा जायतो हुँ सुखे बेसुं ने भक्ष्य पण प्रमाणमां कंइक वधारे मळे एवी दुष्ट भावनाथी, एक एक प्रति निकाचित अत्यंत वैर पूर्वक कर्म बांधेछे-जे वर्धमान थतां तेमने अति दुष्कृत लागेछे, तेम निगोद जीवोना कर्मबंध विषे पण समजवु. जुओ ! अति सांकडा पांजरामा पूरायला पक्षीओ अने जाळ वगेरेमां सपडायलां माछलां परस्पर विवाधाथी देषयुक्त थया छतां अति दुःखी थायछे. बुधो कहेछे के, चोरने मरातो अथवा सतीने अग्निमां प्रवेश थती कुतूहलथी जोनारा द्वेष विना पण सामुदायिक कर्म बांधेछे, जे नियत (खरेखर ) अनेक प्रकारे भोगवतुं पडेछ. ए प्रमाणे कौतुकथी बंधायलां कर्मोनो विपाक अति दुःखदायी थायछे तो पछी निगोद जीवोए परस्परबाधाजन्य विरोधथी अनंत जीवो साथे बांधेलां कर्मोनो भोग (परिपाक ) अनंत काळ वीत्या छतां पण पूरो न थाय तेमां शुं आश्चर्य छे ? निगोद जीवोने मन नथी तेम छतां ते तंदुल मत्स्यनी पेठे, जेनो परिपाक अनंत काळ सुधी पहोंचे एवां कर्म शाथी बांधछे ? निगोद जीवोने मन नथी तोपण अन्योन्य विवाधाथी तेमने दुष्कर्म तो उत्पन्न थाय ज. विष जाणतां खाधुं होय अथवा अजाणतां खाधं होय तोपण ते मारे ज. जाणवामां होय तो पोते अथवा वीजा उपाय करे तेथी कदाचित् वची जाय परंतु अजाणपणे तो मारी ज नाखे. तेवीज रीते मन विना उत्पन्न थयेलुं परस्पर वैर अनंत काळे पण भोगवतां पुरुं थाय नहि. निगोदना जीवोने मन नथी पण मिथ्यात्व, अविरति, कषाय अने काययोग जे कर्मयोगनां वीज छे ते होयछे.

Loading...

Page Navigation
1 ... 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249