Book Title: Jain Tattvasara
Author(s): Atmanandji Jain Sabha Bhavnagar
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 216
________________ ( ३६ ) • या जेवां भुज्यमान कर्म समजवां व्रती अथवा अती सर्वे संसारी जीवोने युक्त, भोग्य अने भुज्यमान कर्म होयछे. केवलज्ञानी महन्तोने बंधातां कर्मा शिलाग्र उपर पडता वरसादना बिंदु जेवां अल्पस्थितिवाळां होय. तेमां पण ते जण अवस्था समजवी. अंतना पहेला समययां केवलज्ञानीने भाग्य कर्म होतां नथी, भुक्त अने भुज्यमान कम होय छे अने अंत समये तो सर्व कर्मनो क्षय करवाथी मात्र मुक्त कर्म होयछे. कर्तादि वीजानी प्रेरणा विना द्रव्य, क्षेत्र, काळ अने भावना तेवा स्वभावथी कर्मनी भुक्तादित्रण दशा थाय छे. सिद्धात्माए कर्मोनो पूर्वे नाश करेलो होवाथी ए ऋण दशा तेमने संभवती नथी. भुक्त कर्म एवी दशा पण केवलज्ञान थयुं ते भवना अंत सुधी समजवी, सिद्धावस्थामा नहि. कर्म संबंधी आ विचार सामान्य लोकने प्रतिवोध थाय एटला माटे लोकप्रसिद्ध तो बडे कामां आव्योडे. प्रवीण पुरुषोए प्राचीन युक्तियो बडे समजी लेवो वीजानी भेरणा विना कर्मों भोगववानी वामां एवां अनेक उदाहरणो विचारनिपुणोए विचारो लेवां. परमेश्वरनी वाणी प्रमाण छे.

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