Book Title: Jain Tattvasara
Author(s): Atmanandji Jain Sabha Bhavnagar
Publisher: Atmanand Jain Sabha
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__ आ शब्दो जिव्हादिवत् ? शब्दवाळा नथी, स्वर्णादिनी पेठे रूप
वाळा नथी, पुष्पादिनी पेठे सुगन्धवाला नथी, शर्करादिनी पेठे रसवाळा नथी अने पवनादिनी पेठे स्पर्शवाळा नथी. परन्तु ताल्वोष्ठजिव्हादि स्थानकेथी बोलायछे, एक कर्णेन्द्रिय द्वारा एमना वर्णो ग्रही शकायछे, एमनाथी थती चेष्टादिवडे विशेष बोध थायछे अने स्वाभ्यासमां थयेला फळ उपरथी अनुमान थइ शकेछे. ए शब्दो स्वविरोधीनो नाश करेछे अने स्वविरोधीनो जन्म थतां वार ज पोताना नामनो शीघ्र नाश करेछे. स्वकीय उच्चारनी साथे उत्पन्न थता गुणविशिष्ट ए शब्दोने सर्वे एकसरखी रीते वापरेछे. जो आवा सिद्ध शब्दोनो साक्षात्कार स्वइंद्रियो वडे थतो नथी तो अप्रत्यक्ष पुण्य पापादि वस्तुमां कोनी इन्द्रियोनी प्रवृति थइ शके ?

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