Book Title: Jain Tattvasara
Author(s): Atmanandji Jain Sabha Bhavnagar
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 221
________________ (४१) विरह प्रायः होतो नथी. जेमके गोशृंग, नरेन्द्रकेश, भूमिरुह, गोपति भूधर वगेरे. केटलाक शब्दो पृथक् पृथक् अने संयुक्त पण होयछे. आंख कान वगेरेथी ग्रहण थइ शके एवी वस्तु छतां पण खरा कर्पूरादिमां अने कर्पूरादि नहि पण तेना जेवा ज लवण शर्करादिमां आंख कान भेद पाडी शकतां नथी. आंख, कान, नाक ने जिहाथी जो के शर्कराकर्पूरादि सुगन्धी वस्तुओ विषे ज्ञान थायछे तो पण तेमांना केटलाक विषे जिह्वाथी थयेलं ज्ञान प्रमाण गणायछे. स्वर्णादि वस्तुमां, आंख अने काननुं ज्ञान स्फुरेछे खरं पण ते पदार्थनी खात्री माटे मात्र इन्द्रिय-ज्ञान नहि किन्तु कषादिथी थतुं ज्ञान ज प्रमाण गणायचे. रत्नपरीक्षको इन्द्रियो सरखी छतां रत्नपरीक्षिका नामना ग्रंथना आधारे माणिक्यप्रमुख रत्नराशियोनी किंमत अधिक ओछी करेछे पण एक सरखी करता नथी तेमां तेमनी प्रतिभाविशेष कारण छे, तेवीज रीते अफीणादि जोटक (केफ?) मां सर्व इन्द्रियो मोह पामेछे; पण ते खाधाथी थती उन्मत्तत्ता तेमना विषे निर्णय करवामां प्रमाण गणायछे. माटे इन्द्रियज्ञान सर्व सत्य नथी. औषधी, मंत्र, गुटिका अने अदर्शीकरण (नेत्रांजन) थी गुप्त रहेनारनुं शरीर लोकोना दृष्टिपथमां आवतुं नथी तेटला उपरथी ते नथी एवं शुं इन्द्रियो नथी ग्रहण करती? अर्थात् इन्द्रियोथी तेनुं अस्तित्व ग्रही शकातुं नथी. तो पण ते गुप्त पुरुष आनयमोचनादि-लाव_ मूकवू वगेरे कार्य करेछे तेथी तेनी सत्ता सिद्ध थायछे. * आथी परोक्षनी सिद्धि थायछे अने परोक्षनी सिद्धि थइ एटले स्वर्गनरकनी सिद्धि थइ ज. *शक्ति, महेश, वीर, भूत, सती, जांगुलिका, सपत्नी अने सिद्धायिकादिनी सिद्धि पण तेवीज रीते मनायछे.

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