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अष्टम परिच्छेद
है, इत्यादि होवे, तब तो मौन करके उस धन को धर्मस्थान में लगा देवे ।
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तथा घर की चोरी यह है - घर की सर्व वस्तुओं के मालिक माता पिता हैं, तिन के पूछे बिना धन वस्त्रादि लेने की जयणा रक्खे । अथवा जिस के साथ प्रेम होवे, तथा जो संबंधी होवे, जिस के घर में जाने आने का अरु खाने पीने का व्यवहार होवे उसके बिना पूछे कोई फलादि वस्तु खाने में आवे, उसका आगार रखखे । परन्तु जेकर खाने से मालिकों का मन दुःखे, तो न लेवे। तीसरा व्रत पाले । यह व्यवहार शुद्ध विरमण व्रत हैं ।
उस वस्तु के
इस रीति से
अदत्तादान
निश्चय से तो जितना अबंधपरिणाम हुआ अर्थात् गुणस्थान की वृद्धि होने से बंध का व्यवच्छेद हुआ है, सो निश्चय अदत्तादानविरमण व्रत कहिये । इस व्रत के भी पांच अतिचार हैं, सो कहते हैं ।
प्रथम स्तेनाहृत अतिचार --- चोर की चुराई हुई जो वस्तु तिस को स्तेनाहृत कहते हैं । सो वस्तु न लेवे, एतावता चोरी की वस्तु जान करके न लेवे। क्योंकि जो चोरी
वो
की वस्तु जान कर लेता है, हैं । क्योंकि जैनमत के शास्त्रों में
लेनेवाला भी चोर सात प्रकार के चोर
लिखे हैं । यथा: