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जैनतरवादर्श
ऐसे शुभ भावना वासित प्रागुक्त दिनकृत्यादि में रक्त " इणमेव निग्गंथे पवयणे अट्ठे परमट्ठे सेसे अणट्ठे " ऐसी सिद्धांतोक रीति से वर्त्तमान सर्व व्यापारों में सर्व प्रयत्न से वर्त्तता हुआ सर्वत्राऽप्रतिबद्ध चित करके क्रम से मोह के जीतने में समर्थ होके पुत्र, भाई, भतीजादि को गृहभार सौंप के, अपनी शक्ति को देख के, अर्हत चैत्य में अट्ठाई महोत्सव करके, संघ की पूजा करके, दीन अनाथों को यथाशक्ति दान दे के, परिचित जनों से खामणा करके सुदर्शन श्रेष्ठीवत् विधि से सर्वविरति अंगीकार करे ।
पंदरहवां द्वार - जेकर दीक्षा लेने की तदा आरंभ का त्याग करे । जेकर निर्वाह सर्व सचिताहारादिक कितनाक आरम्भ वजें ।
सोलमा द्वार -- ब्रह्मचर्य जावजीव तक अंगीकार करे, यथा शाह पेथड़ ने बत्तीस वर्ष की अवस्था में ब्रह्मचर्य धारण किया ।
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शक्ति न होवे, न होवे, तो भी
ग्यारह प्रतिमा प्रतिमा का स्वरूप इस
सतरहवां द्वार - प्रतिमादि तपविशेष करे । आदि शब्द से संसारतारणादि तप करे । तहां ग्यारह तरें है - १. रायाभिओ - रहित तथा सतसठ लज्जादि से अतिचार
गेणादि छ आगार
बोल श्रद्धादि सहित सम्यग् दर्शन भय रहित त्रिकाल देवपूजादि में तत्पर एक मास तक सम्यक्त्व पाले, यह प्रथम प्रतिमा । २. दो मास तक अखंडित पांच