Book Title: Jain Tattvadarsha Uttararddha
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 383
________________ ३५६ जैनतत्त्वादर्श काल में आराधना जो आगे कहेंगे, सो अरु संलेखनादि को विधि से करे । श्रावक जब सर्व धर्मकृत्य में अशक्त हो जावे, तब जान के द्रव्य अरु भाव. मरण निकट दो प्रकार से संखेलना तो संलेखना करे । तहां द्रव्य अनुक्रम से आहार त्यागे, अरु भावसंलेखना - सो क्रोधादि कषाय को त्यागे । मरण का निकट इन लक्षणों से जान लेवे - १. बूरे स्वम आवें, २. प्रकृति स्वभाव और तरें का होवे, ३ दुर्निमित्त मिले, ४.. खोटे ग्रह आवें, ५. आत्मा का आचरण फिर जावे, अथवा कोई देवता कह जावे तो मरण निकट जान जावे । जो द्रव्य तथा भाव से संलेखना न करे, अरु अनशन कर देवे, उसको प्रायः दुर्ध्यान होने से कुगति होती है । इस वास्ते संलेखना उद्यापन करने के दिन की भी दीक्षा राजा के भाई कुबेर के अवश्य करे। पीछे श्रावकों के धर्म के वास्ते संयम अंगीकार करे, क्योंकि एक स्वर्गलोक की दाता है । जैसे नल पुत्र सिंहकेसरी, पांच दिन की दीक्षा से केवल ज्ञान पाके मोक्ष गये । तथा हरिवाहन राजाने नव प्रहर की शेष आयु सुन के दीक्षा लीनी, सर्वार्थसिद्ध विमान में गया । संथारा और दीक्षा के अवसर में प्रभावना के वास्ते यथाशक्ति धन खरचे । जैसे सात क्षेत्रों में, तिस अवसर में थिरापद्रीय संघपति आभूने सात क्रोड़ धन खरचा । तथा जिसको संलेखना

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