Book Title: Jain Tattvadarsha Uttararddha
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 382
________________ दशम परिच्छेद ३५५ अणुव्रत पाले । सो भी पिछली प्रतिमा सहित वर्ने । ३. तीन मास तक उभय काल अप्रमत्त पूर्वोक्त दो प्रतिमा सहित सामायिक करे । ४. चार मास तक चार पर्वो में पूर्व की तीन प्रतिमा सहित अखंडित परिपूर्ण पौषध करे । ५. पांच मास तक स्नान न करे । रात्रि को चार आहार वजें, दिन में ब्रह्मचर्य घरे। कच्छ बांधे नहीं । चार पों में घर में तथा चौक में निष्प्रकप हो के सकल रात्रि कायोत्सर्ग करे। यह सर्व पूर्व की प्रतिमा सहित करे । यह वात आगे भी सर्व प्रतिमा में जान लेनी । ६. छ मास तक ब्रह्मचारी होवे । ७. सात मास तक सचित्त आहार वर्जे । ८. आठ मास तक आप आरंभ न करे । ९. नव नास तक आरंभ करावे नहीं। १० दश मास तक सुरमुंडित रहे अथवा अल्प चोटी रक्खे। घर में गडा हुआ धन होवे, जब घर के पूछे तब कहे जानता हूं, और जो न गडा होवे, तो कहे मैं नहीं जानता । शेष घर का कृत्य सर्व वजें। तिस के निमित्त जो घर में आहार करा होय, तो मी न खावे । ११. ग्यारां मास तक घर का संग त्यागे, लोच करे वा शुरमुंडित होवे, रजोहरण, पाने प्रमुख ले के मुनि का वेषधारी हो कर स्वकुल में मिक्षा लेवे । मुख से ऐसा कहे कि " प्रतिमाप्रतिपन्नाय श्रमणोपासकाय मिक्षा देहीति " धर्मलाभ शब्द न कहे । सर्व रीति से साधु की तरें प्रवर्ने । अठारहवां द्वार, आराधना का कहते हैं। श्रावक अन्त

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