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नवम परिच्छेद
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तिस वास्ते अवश्य धर्मार्थियों को उचिताचरण में निपुण होना चाहिये ।
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अब अवसर में उचित बोलना, यह बड़ा गुणकारी हैं, तथा और भी जो कुशोभाकारी होवे, सो सामान्य शिष्टाचार त्यागे । विवेकविलास आदि में कहा है – जंभाई, छींक, डकार, तथा हसना, यह सब मुख ढांक के करे । सभा के बीच नाक में अंगुली डाल के मैल न काढे, हाथ मोडे नही, पर्यस्तिका न करे, पग न पसारे, निद्रा विकथा न करे, सभा में कोई बुरी चेष्टा न करे। जो कुलीन पुरुष है सो अवसर में हसे, तो होठ फरकने मात्र हसे, परन्तु मुख फाडके न हसे | अपना अंग बजावे नहीं, तृण तोडे नहीं, व्यर्थ भूमि में लिखे नहीं । नखों करके दांत घिसे नहीं, दांतों करी नख न तोड़े । अभिमान न करे । भाट - चारण की सुनके गर्व न करे। अपने गुणों का निश्चय करे। बात को समझ के बोले । नीच जन को अपने को हीन वचन कहे, तो उसको बदले का हीन वचन न बोले । जिस वस्तु का निश्चय न होवे, सो वात प्रगट न कहे। जो कोई पुरुष कार्य करे, अरु उस कार्य के करने में वो समर्थ न होवे, तिस को पहिले वर्ज देवे, कहे कि - यह काम तुम न करो। तथा किसी का बूरा न बोले, जेकर वैरी का बूरा बोले, उसका अटकाव नहीं, परन्तु सो भी अन्योक्ति करके बोले । तथा माता, पिता, रोगी, आचार्य, पराहुणा, अभ्यागत,
करी हुई प्रशंसा