Book Title: Jain Tattvadarsha Uttararddha
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 355
________________ ३२८ जैनतत्त्वादर्श होवे । ६. आलोचक के पापकर्म और के आगे न कहे। ७. जैसे वो आलोचक निर्वाह कर सके, तैसे प्रायश्चित्त देवे । ८. जो प्रायश्चित न करे, तिसको इस लोक अरु परलोक का भय दिखावे । यह आठ गुण युक्त गुरु होता है। - साधु ने तथा श्रावक ने १. प्रथम तो अपने गच्छ में गच्छ के आचार्य के आगे, २. तदयोगे-तदभावे उपाध्याय के पास, ३. तदभावे प्रवर्तक के पास, ४. तदभावे स्थविर के पास, ५. तदभावे गणावच्छेदक के पास, स्वगच्छ में इन पांचों के अभाव से संभोगी एक समाचारीवाले, गच्छांतर में पूर्वोक्त आचार्यादि पाचों के पास क्रम से आलोचे । तिनके भी अभाव से असंभोगी संवेगी गच्छ में पूर्वोक्त क्रम से आलोचे । तिनके भी अभाव हुए गीतार्थ पार्श्वस्थ के पास आलोचे । तिसके अभाव से गीतार्थ सारूपी के पास आलोचे, तिसके अभाव में पश्चात्कृत के पास आलोचे । सारूपी उसको कहते हैं कि, जो शुक्ल वस्त्रधारी होवे, शिरमुंडित, अबद्धकच्छ, रजोहरण रहित, ब्रह्मचारी, खी रहित, भिक्षावृत्ति होवे । अरु जो सिद्धपुत्र होता है, सो शिखा सहित, अर्थात् चोटी सहित, स्त्री सहित होता है। तथा जो पश्चात्कृत होता है, सो चारित्र छोड़ के गृहस्थ के वेषवाला होता है। आलोचना के अवसर में पार्श्वस्थादि को भी गुरु की तरे वंदना करे। क्योंकि विनयमूल धर्म है, इस वासते वंदना करे। जेकर वो पार्श्वस्थादिक अपने आप को

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