Book Title: Jain Tattvadarsha Uttararddha
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 372
________________ दशम परिच्छेद ३१५ अथ पष्ठ प्रतिमा द्वार-सो श्रीअहंत का विय, मणि, सुवर्ण, धातु, चंदनादि काष्ठ अरु पाषाण, जिनप्रतिमा माटी प्रमुख का पांच सौ धनुष प्रमाण, का निर्णय यावत् अंगुष्ठ प्रमाण यथाशक्ति से बनावे । श्रीजिनप्रतिमा बनानेवाले को जो फल होता है, सो कहते हैं:सन्मृत्तिकामलगिलातलदंतरोप्य सौवर्णरत्नमणिचंदनचारूवित्रम् । कुर्वति जैनमिह ये स्वधनानुरूप, ते प्राप्नुवंति सुरेषु महासुखानि ।। दारिदं दोहग्गं कुजाइकुसरीरकुगईकुमईओ। अवमाणरोगसोगा न हुनि जिणविवकारीणं ॥ अर्थः-जो जिनविंव का करानेवाला है, सो दारिद्र, दौर्भाग्य, कुजाति, विरूप शरीर, नरक तिर्यंच की गति, वुरी बुद्धि, परवशपना, रोगी अरु शोकपने को न पावे । तथा प्रतिमा भी वास्तुशास्त्र में कही विधिपूर्वक वनावे । सुलक्षणा, संतति की वृद्धि करनेवाली बनावे । तथा जो प्रतिमा अन्यायोपार्जित द्रव्य से बने, दोरंगादि रंगवाले पाषाण की बने, जिसका अंग हीनाधिक होवे, सो प्रतिमा स्वपर की उन्नति का नाश करनेवाली है । तथा जिस प्रतिमा

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