Book Title: Jain Tattvadarsha Uttararddha
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 374
________________ दशम परिच्छेद पुण्य फल होता है। जहां तक वो मन्दिर अरु प्रतिमा रहेंगे, तहां तक पुण्य फल होवे । जैसे अष्टापद ऊपर भरत राजा का कराया चैत्य तथा रेवतगिरि ऊपर ब्रहेंद्र का कराया कांचन वलानकादि चैत्यप्रतिमा, अरु भरतचक्री की अंगूठी में माणिक की प्रतिमा, तथा कुल्पाक तीर्थ में माणिक्यस्वामी की प्रतिमा कहलाती है। तथा श्रीस्तंभनक पार्श्वनाथ की प्रतिमा आज लग पूजते हैं। इसी वास्ते इस चौवीसी में पहिले भरतचक्री ने श्रीशत्रुजय तीर्थ में रत्नमय चौमुख चौरासी मंडप संयुक्त श्रीऋषमदेव का मन्दिर बनवाया। पांच कोडी मुनियों से पुंडरीक गणधर मोक्ष गये । ज्ञाननिर्वाण के ठिकाने भी बनवाये। ऐसे ही बाहुबली, मरुदेवीश्रृंग में तथा रेवतगिरि, अर्बुदगिरि, वेमारगिरि अरु समेतशिखर में भी जिनमंदिर बनवाये । प्रतिमा भी सुवर्णादिक की बनवाई। तथा भरतराजा की आठमी पीढी में-पुस्त में दण्डवीर्य राजा ने तथा दूसरा सगर चक्रवर्त्यादिकों ने तिन का उद्धार कराया । तथा हरिषेन नामक दशमे चक्रीने श्रीजिनमंदिर मंडित पृथ्वी करी, तथा संप्रति राजा ने सवा लाख जिनमंदिर तथा सवा क्रोड जिनप्रतिमा बनवाई । तथा आम राबा ने गोपालगिरि अर्थात् गवालियर के राजा श्रीमहावीर अहंत का मन्दिर एक सौ एक हाथ ऊंचा बनवाया । तिस में साढे तीन क्रोड़ सोनामोहोर खरच कर सात हाथ प्रमाण ऊंची , श्रीमहावीर अहंत की प्रतिमा विराजमान करी। तहां मूल

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