Book Title: Jain Tattvadarsha Uttararddha
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Atmanand Jain Sabha

View full book text
Previous | Next

Page 373
________________ जैनतत्त्वादर्श का मुख, नाक, नेत्र, नाभि, कटि, इतने मंग, भंग होवे, तो उस प्रतिमा को मूलनायक नहीं करना चाहिये। अरु आमरण सहित, वस्त्र सहित, परिकर सहित, लांछन सहित पूजे । तथा निस प्रतिमा को सौ वर्ष से अधिक वर्ष हो गया होवे, अरु आगे जो प्रामाविक पुरुष की प्रतिष्ठी हुई होवे, वो प्रतिमा जेकर खंडित होवे, तो भी पूजने योग्य है। तथा बिंब के परिवार में पाषाणमय में, जेकर दूसरा रंग होवे, तो वो बिंब सुखकारी नहीं । जो बिंब सम अंगुल प्रमाण होवे, सो शुभ नहीं। तथा एक अंगुल से लेकर ग्यारह अंगुल प्रमाण बिंब घर में पूजना चाहिये । इस से उपरांत प्रमाणवाला विंब होवे, तो प्रासाद में पूजना चाहिये। यह कथन पूर्वाचार्यों का है। तथा निरयावलिसूत्र में कहा है कि, लेप की, पाषाण की, काष्ठ की, दांत की, लोहे की प्रतिमा, परिवार अरु प्रमाण रहित होवे, तो घर में न पूजे । तथा घरप्रतिमा के आगे नैवेद्य का विस्तार न करे। तीन काल में निश्चय से अभिषेक करे । पूजा भाव से करे । प्रतिमा मुख्यवृत्ति से परिकर सहित, तिलक सहित, आभरण सहित करावे । उस में मूलनायक तो विशेष करके शोभनीक बनाना चाहिये । क्योंकि जिनप्रतिमा की अधिक शोभा देखने से परिणाम अधिक उल्लासमान होने से कर्मों की अधिक निर्जरा होती है। जिनमंदिर अरु जिनप्रतिमा बनानेवाले को अतुल्य

Loading...

Page Navigation
1 ... 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384