Book Title: Jain Tattvadarsha Uttararddha
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 351
________________ ३२४ जैनतरवादर्श लड्डु प्रमुख का लाहणा करे । तथा साधर्मिवात्सल्य अरुः यथोचित दान देवे। बड़े उत्सव से जब तीर्थ को प्राप्त होवे, तब प्रथम हर्ष पूजा धन चढ़ावे, तथा अष्टोपचारविधि, स्नान, मालोद्घट्टन, घी की धारा देवे। पहरावणी मोचन करे। तथा नवाङ्ग जिनपूजन, फूलघर कदलीघरादि महापूजा करे । दुकूलादिमय महावन देवे। मांगनेवालों को ना न कहे। तथा रात्रिजागरण नाना प्रकार के गीतनृत्यादि उत्सव करे। तथा तीर्थोपवास, छह प्रमुख तप कोडि लाख अक्षतादि विविध प्रकार का उजमना ढोवे । तथा नाना प्रकार की वस्तु फल एक सौ आठ, चौवीस, ब्यासी, बावन, बहत्तरादि ढोवे । सर्व भक्ष्य भोजन के थाल ढोवे। दुकू. लादिमय चन्द्रवा की पहरावणी करे । तथा अंगलहना, दीपक, तेल, धोती, चन्दन, केसर, कस्तूरी, चंगेरी-छाबड़ी, कलश, धूपधान, आरति, आभरण, प्रदीप, चामर, श्रृंगार, स्थाल, कचोलक, घण्टा, झालरी, पड़हादि विविध प्रकार के वाजिंत्र देवे । देहरी करावे । कारीगरों का सत्कार करे । तीर्थ के बिगड़े काम को समरावे-सारसंभाल करे। तीर्थरक्षकों को बहु सन्मान देवे। जैन के मंगतों को, दीनों को, उचित दान देवे । तथा साधर्मिवात्सल्य, गुरुमकि करे। इस रीति से यात्रा करके तैसे ही पीछे फिरे, वर्षादि तक तीर्थ व्रत करे। अथ स्नात्रविधिलिख्यते-मन्दिर में स्नात्र महोत्सव भी

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