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जैनतत्वादर्श
आजाता है, तब वो कोई और अनर्थ कर देते हैं । तथा समानवृत्ति नागरों की , तरे असमान वृत्तिवाले नगरनिवासियों के साथ भी यथायोग्य उचिताचरण करे।
९. अथ परतीर्थी-परमतवालों के साथ उचिताचरण । लिखते हैं जो पर मतवाला साधु भिक्षा के परमतवाले से वास्ते घर में आवे, तो उसका उचित सत्कार उचित व्यवहार करे । तथा राजा के माननीय का विशेष . उचित करे । उचित कृत्य सो यथायोग्य दान देना । जेकर उन साधुओं के मन में भक्ति नहीं भी होवे, तो भी घर में मांगने आये को देना चाहिये, क्योंकि दान देना यह गृहस्थ का धर्म ही है। तथा महंत कोई घर में आ जावे, तो आसन, दान, सन्मुख जाना, उठ के खड़ा होना प्रमुख सत्कार करे । तथा परमतवाला किसी कष्ट में पड़ा होवे, तदा उसका उद्धार करे। दुःखी जीवों पर दया करे । पुरुषापेक्षा मधुर आलापादि करे। तथा अन्यमतवाले को काम का पूछनादि करे, जैसे कि आप का आना, किस प्रयोजन के वास्ते हुआ है ! पीछे जो कार्य वो कहे, सो कार्य जेकर उचित होवे, तो पूरा कर देवे, तथा दुःखी, अनाथ, अन्धा, बधिर, रोगी प्रमुख दीन लोगों की दीनता को यथाशक्ति दूर करे ।।
जो श्रावकादि पूर्वोक्त लौकिक उचिताचरण में कुशल नहीं होवे, तो वो जिनमत में भी क्योंकर कुशल होवेंगे !