Book Title: Jain Siddhant Pravesh Ratnamala 07
Author(s): Digambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 6
________________ नही समझता । इस प्रकार की भाव- शून्य क्रिया का मानस पटल पर कोई प्रतिफल नही होता। पाठ आदि करने का उद्देश्य भार उतारना नही । दीमक की भाँति शनै शनै हमारी आत्मा का हनन करने वाली दूषित वृत्तियो को हृदय से बाहर निकाल फैकना ही उसका एक मात्र उद्देश्य है । शब्द एव अर्थ के बोध पूर्वक किया गया ऐसा नित्यपाठ पतित को पावन बनाने वाला एक महान आध्यात्मिक योग है । हे जीवो, यदि आत्म कल्याण करना चाहते हो तो सम्यग्दर्शन प्रगट करने के लिए सत्समागम से समस्त प्रकार से परिपूर्ण आत्म स्वभाव की रुचि और विश्वास करो, उसी का लक्ष और आश्रय करो । कहा है कि आपा नहि जाना तूने, कैसा ज्ञान धारी रे | देहाश्रित कर किया आपको मानत शिव मग चारी रे ॥ सबसे प्रथम राग रहित ज्ञायक स्वभावी अपनी आत्मा का निर्णय करना चाहिए, यह ही जिन प्रवचन का सार है और जिन वाणी की भक्ति है क्योकि आत्मा का अनुभव हुए बिना पूजादि नही हो सकती है । इसलिए पात्र जीवो को तत्त्व निर्णय करके भगवान का सच्चा भक्त बनना चाहिए | छहढाला मे कहो गया है कि चरित्रा | पवित्रा || मोक्ष महल की परथम सोढी, या बिन ज्ञान सम्यक्ता न लहै सो दर्शन धारो भव्य "दौल" समझ सुन चेत सयाने, काल वृथा मत खोवे। यह नरभव फिर मिलन कठिन है, जो सम्यक् नहि होवै ॥ इसलिए पात्र जीवो को प्रथम सम्यग्दर्शन प्रगट करने का पुरुषार्थ करना चाहिए । विनीत श्री दिगम्बर जैन मुमुक्षु देहरादून मंडल

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