Book Title: Jain Shwetambar Terapanthi Sampraday Ka Sankshipta Itihas Author(s): Shreechand Rampuriya Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Sabha View full book textPage 5
________________ विजयी होकर गजेंगे। दीपांबाईको रघुनाथजीके इस उत्तरसे सन्तोष मिला और उन्होंने पुत्रको प्रवर्जित होनेकी आज्ञा दे दी। रघुनाथजीने सं १८०८ में स्वामी भिखणजीको दीक्षित किया। दीक्षाके बाद प्रायः ८ वर्ष तक भीखणजी रघुनाथजीके साथ रहे और इस समयको उन्होंने अत्यन्त अध्यवसाय और एकान्त एकाग्रचित्तके साथ जैन सूत्रोंके अध्ययन और मननमें लगाया । शास्त्रोंके गम्भीर अध्ययनसे उन्हें ज्ञात हुआ कि तत्कालीन साधुवर्गशास्त्रीय आदेशोंको सम्पूर्णतया पालन नहीं करते और न वे शास्त्रको सच्ची व्याख्या करनेका साहस रखते हैं । भीखणजीने देखा कि तत्कालीन साधु अपने लिए बनाये हुए स्थानोंमें रहते हैं, उद्देशिक आहार लेते हैं. भिक्षाके नियमोंका समुचित पालन नहीं करते, और पुस्तकों के समूह दीर्घकालतक बिना पडिलेहनाके रखते हैं, दीक्षा देनेके पहिले अभिभावकोंकी आज्ञा अनिवार्य नहीं समझते, वस्त्रं पात्र तथा साधुके अन्य उपकरण आवश्यकता और शास्त्रीय प्रमाणसे अधिक संख्यामें रखते हैं, उनमें सच्चा आत्मदर्शन नहीं और न शुद्ध साधूचित आचार ही है। यह सब भीखणजीने शास्त्रीय अवलोकन और मंथनसे अच्छी तरह जान लिया। रघुनाथजीका उन पर अत्य. धिक स्नेह था और इसलिए गुरुके सन्मुख उनके शिथिलाचारकी बातें रखनेमें भीखणजी पहिले पहल कुछ कठिनाई और संकोचका अनुभव करते थे। तथापि नाना प्रकारकी शंकाएँ उत्थापन और प्रश्न करते रहे ओर सच्चे रहस्यको जाननेकी उत्कंठा दिखाते रहे। इतनेमें ही संयोगवश एक ऐसी घटना हुई जिसके बाद भीखणजीके भविष्य जीवनकी गति पलट गई। यह घटना स्वामीजीके भविष्य जीवनको उज्ज्वल बनाने वाली थी। मेवाड़में राजनगर नामक एक शहर है । वहाँ की जनसंख्या काफी थी। उनमें रघुनाथजीके बहुतसे अनु. यायी भी थे। इन अनुयायियों में अधिकांश महाजन थे और उनमें कुछको जैनशास्त्रोंके मर्मका अच्छा ज्ञान था । इन श्रावकोंको कई बातोंके सम्बन्धमें शंकाएं हो गयीं और उन्होंने रघुनाथजी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanonandar.comPage Navigation
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