Book Title: Jain Shwetambar Terapanthi Sampraday Ka Sankshipta Itihas
Author(s): Shreechand Rampuriya
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Sabha

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Page 34
________________ ( ३ ) हैं। बल का प्रयोग कर जीव घात को रोकना उनके लिये पाप हो जाता है। जैन शास्त्रों में तो यहां तक कहा है कि किसी भोगी को भी भोगों से जबरदस्ती बञ्चित करना महा बलवान मोहनी कर्म को बांधना है। इसी न्यायसे साधु जीव मात्र का श्रापसी कलह, मार काट भादि में बल प्रयोग कर वाधा नहीं देते, उपदेश द्वारा समझा कर उसे निवृत्त करना ही उनका धर्म व कर्तव्य है। न्यायकी दृष्टिसे भी ऐसा ही उचित प्रतीत होगा। अनुचित पक्षपात या राग-द्वेष समस्त कर्मों का मूल है। कुछ लोग इस बातका रहस्य न समझ अन्य धर्मियोंके देखादेख दयाका स्वरूप ही दूसरा बतलाते हैं। उनकी यह भूल, शासकी दृष्टिसे स्पष्ट प्रतीयमान है। इस प्रकार बल या जवरदस्तीसे काम लेनेसे जहाँ रक्षकको कोई नाम नहीं होता उल्टा अन्तराय उपस्थित करनेसे पापकर्म लगता है, यहां आततायीका भी कोई सुधार नहीं होता। बिना मन धर्म पालन करवा लेनेसे ही पाप दूर नहीं होता। (६) सुपात्र दानसे धर्म होता है । कुपात्र दानमें संसार कीर्ति भले हो हो धर्म पुण्य नहीं है । जैन शास्त्रोंमें दश दानोंका वर्णन पाया है। परन्तु उन सभीमें धर्म न समझना चाहिये । प्रह उपग्रहादिको शान्तिके लिए जो धन धान्यादि दिया जाता है वह भी दान है और विवाहशादीके अवसरपर दहेज, मुकलावादि दिया जाता है वह भी दान है, परन्तु इन दोनोंमें कोई धर्म नहीं है। देने मात्रही में धर्म समझना भूल है। दानसे धर्म लाम करना हो तो विवेकका सहारा लेना चाहिए। दान सत्पात्रके लिए ही है । कुपात्र को दान देना धर्मके स्थानमें पापोपार्जन करना है। जो जीव सर्वथा हिंसा नहीं करता, सर्वथा झूठ नहीं बोलता, सर्वथा चोरी नहीं करता, संपूर्ण शीलकी रक्षा करता है. और बिलकुल परिप्रह नहीं रखता वही सुपात्र है । ऐसे सुपात्रको दान देना सुक्षेत्रमें बीज डालनेकी तरह है कि जिसका फल बड़ा अच्छा होता । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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