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तिहास
श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी सम्प्रदाय
संक्षिप्त इतिहास
श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी सभा, कलकत्ता द्वारा
संकलित व प्रकाशित ।
146
वृत्ति २०००
मूल्य-)
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श्रीगुरवे नमः
प्रस्तावना जैन सिद्धान्तों के अनुसार संसार अनादि है । जीव और कर्म भी अनादि हैं एवं उनका मिलाप अनादि कालसे चला आ रहा है। कर्मों से मुक्त होना ही जीवके लिये मुक्ति प्राप्त करना है। इस मुक्तिके मार्गको जैन धर्म अनादि कालसे बतलाता आ रहा है। इस अनन्त
और अनादि कालके प्रवाहमें नश्वर एवं अशाश्वत वस्तुओंका परिवर्तन सदा होता आया है, किन्तु शाश्वत वस्तु पर कालकी शक्ति नहीं चलती। धर्म-सत्य, नित्य, शाश्वत एवं सनातन है । जैसे १+१ सब समयमें दो ही था, और रहेगा, वैसे ही, अहिंसा, सत्य, अचौर्य एवं अपरिग्रह सदासे धर्मका मार्ग माना गया है और माना जायगाइसमें फेरफार नहीं हो सकता । यही कारण है कि जितने तीर्थक्कर हो गये हैं सबकी एक ही धर्मदेशना रही है। जैनियोंमें मुख्य दो विभाग हैं-श्वेताम्बर व दिगम्बर । अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय व साधु यह पंच परमेष्टि समस्त संप्रदायों व विभागों को मान्य हैं। सब सम्प्रदायवाले हिंसामें अधर्म मानते हैं, राग द्वेषको कर्मोंका बीज बतलाते हैं । सिर्फ जैन ही नहीं अन्यान्य मतोंमें भी राग द्वेषको दुःखका कारण बताया है। जैन धर्ममें अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रहको जैसा उच्च स्थान दिया है वैसा अन्य मतमें भी है। धर्माचार्यमात्र इन नियमोंको पालन करनेको कहते हैं । गृहस्थ जीवनमें भी इनकी उपादेयता स्पष्ट जाहर है । जिस राष्ट्र, जिस देश व जिस समाजमें अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रहके गुणोंका अधिक समावेश है वह राष्ट्र, वह देश, वह समाज नैतिक उन्नतिके साथ-साथ सांसारिक उन्नतिके भी उच्च शिखर पर आरूढ़ हो सकता है।
तेरापंथी सम्प्रदाय आधुनिक है, पर इसके तत्त्व नवीन नहीं हैं। वास्तवमें जो नित्य, सत्य, शाश्वत जैन तत्त्व हैं वही इस सम्प्रदायके तत्व हैं। शताब्दियों के पुंजीभूत विकारोंको हटाकर जैनधर्मके सत्य, शाश्वत, सनातन स्वरूपको प्रकाशमें लानेका बीड़ा श्री श्री १००८ श्री
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( ख ) भीखणजी स्वामीने उठाया। उनके परवर्ती स्वनामधन्य आचार्यगण अपने प्राचार व प्ररूपणासे जैनधर्मके महत्व, विशालत्व, निर्दोषत्व अविसंवादित्व संसार के सामने रख तीर्थंकर भगवानके बचनोंको श्रादरके साथ अंगीकार करने के लिये लोगों को उबुद्ध करते आये हैं एवं कर रहे हैं।
तेरापंथी मतकी उत्पत्ति व उसकी मान्यताके सम्बन्धमें बहुत-सी भ्रान्तधारणा लोक समाजमें फैली हुई है। उन भ्रान्त धारणाओंको दूर करनेके लिये इस पुस्तकका प्रकाशन किया जाता है। जन्म जरामृत्यु-मय संसारसे मुक्ति पानेके चार उपाय-ज्ञान, दर्शन, चारित्र तप अथवा दान, शील, तप, और भावना बतलाये हैं। तेरापंथी सम्प्रदायके साधुवग उपदेश द्वारा, शास्त्रीय प्रमाण द्वारा व अपने जीवनयापन-प्रणाली द्वारा इन उपायोंको किस प्रकार कार्यरूपमें लाया जा सकता है यह प्रत्यक्ष दिखा रहे हैं।
इस संक्षित इतिहास के पहले अगरेजी भाषामें दो संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। हिन्दी भाषा भापियों के लिये यह हिन्दी का द्वितीय संस्करण है । इस मतका, इसके पूजनीय आचार्योंका व इसके कुछ तपस्वी मुनिराजों का संक्षिप्त परिचय मात्र इसमें दिया गया है। तेरापंथी साधुओंका आदर्श जीवन, उनका त्याग, उनका वैराग्य, उनका ज्ञान, उनकी विद्वता, उनकी प्रतिभा आदि गुणराशि का प्रकृष्ट परिचय उनके दर्शन व सेवासे मिल सकता है। पाठकगणसे निवेदन है कि दूसरोंके द्वेष पूर्ण प्रचारसे अपने विचारोंको दूषित न कर सत्यका अनुसंधान करें व गुणीजनोंका समुचित समादर कर उनसे उचित लाभ उठावें।
अन्तमें निवेदन है कि छपाई कार्य शीघ्रतासे करानेके कारण भूल चूक रह जानी सम्भव है आशा है पाठक उनके लिये क्षमा करेंगे।
कलकत्ता ) श्रीचंद रामपुरिया चैत सुदी १५-२००१ ) अ० मंत्री, श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी समा।
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श्रीजैन श्वेताम्बर तेरापंथी सम्प्रदाय
संक्षिप्त इतिहास।
प्रथम प्राचार्य श्री भीखणजी महाराज श्रीजैन श्वेताम्बर तेरापन्थी मतके प्रवर्तक प्रातःस्मरणीय श्री श्री १००८ श्री श्री भीखणजी स्वामीका जन्म आषाढ़ सुदी १३ सं० १७८३ ( जुलाई १७२६ ई०) को मारवाड़ राज्यके कंटालिया ग्राममें हुआथा। उनके पिता का नाम बलूजी सुखलेचा तथा माताका नाम दीपांबाई था। साह बलूजी ओसवाल जातिके थे । वे बड़े ही सज्जन प्रकृतिके थे। दीपांबाई भी अपनी सरल और भद्र प्रकृतिके लिए प्रसिद्ध थीं। ऐसे ही पुण्यवान माता-पिताके घर स्वामी भीखणजीका जन्म हुआ था।
स्वामी भीखणजीको बाल्यावस्थासे ही धर्मकी ओर विशेष रुचि थी। उनके माता पिता गच्छवासी सम्प्रदायके अनुयायी थे इसलिये पहले पहल इसी सम्प्रदायके साधुओंके पास भीखणजीका आना-जाना शुरू हुआ। परन्तु वहां पर इनके हृदयकी प्यास न बुझी और सच्चे तत्वानुसंधानके लिये वे पोतियाबन्ध साधुओंके यहां गमनागमन करने लगे। बहुत दिनों तक वे उनके अनुयायी रहे परन्तु वहां भी उन्होंने बाह्याडम्बरकी अधिकता और सच्चे धार्मिक लगनका प्रभाव अनुभव किया। अतः उन्हें छोड़ कर वे जैन श्वेताम्बर स्थानकवासी सम्प्रदायकी एक शाखा विशेषके आचार्य श्रीरुघनाथजीकी भक्ति करने लगे । जिनके हृदयमें वैराग्यकी तीव्र भावना स्थान पा जाती है उन्हें जब तक उस भावनाके अनुकूल संग नहीं मिलता, तब तक सच्चे मार्ग का अनुसंधान करते ही रहते हैं। हृदयकी वैराग्य भावना जितनी ही अधिक तीव्र होती है, अनुसंधानका वेग भी उतना ही जोरदार रहता
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विजयी होकर गजेंगे। दीपांबाईको रघुनाथजीके इस उत्तरसे सन्तोष मिला और उन्होंने पुत्रको प्रवर्जित होनेकी आज्ञा दे दी। रघुनाथजीने सं १८०८ में स्वामी भिखणजीको दीक्षित किया। दीक्षाके बाद प्रायः ८ वर्ष तक भीखणजी रघुनाथजीके साथ रहे और इस समयको उन्होंने अत्यन्त अध्यवसाय और एकान्त एकाग्रचित्तके साथ जैन सूत्रोंके अध्ययन और मननमें लगाया । शास्त्रोंके गम्भीर अध्ययनसे उन्हें ज्ञात हुआ कि तत्कालीन साधुवर्गशास्त्रीय आदेशोंको सम्पूर्णतया पालन नहीं करते
और न वे शास्त्रको सच्ची व्याख्या करनेका साहस रखते हैं । भीखणजीने देखा कि तत्कालीन साधु अपने लिए बनाये हुए स्थानोंमें रहते हैं, उद्देशिक आहार लेते हैं. भिक्षाके नियमोंका समुचित पालन नहीं करते,
और पुस्तकों के समूह दीर्घकालतक बिना पडिलेहनाके रखते हैं, दीक्षा देनेके पहिले अभिभावकोंकी आज्ञा अनिवार्य नहीं समझते, वस्त्रं पात्र तथा साधुके अन्य उपकरण आवश्यकता और शास्त्रीय प्रमाणसे अधिक संख्यामें रखते हैं, उनमें सच्चा आत्मदर्शन नहीं और न शुद्ध साधूचित आचार ही है। यह सब भीखणजीने शास्त्रीय अवलोकन
और मंथनसे अच्छी तरह जान लिया। रघुनाथजीका उन पर अत्य. धिक स्नेह था और इसलिए गुरुके सन्मुख उनके शिथिलाचारकी बातें रखनेमें भीखणजी पहिले पहल कुछ कठिनाई और संकोचका अनुभव करते थे। तथापि नाना प्रकारकी शंकाएँ उत्थापन और प्रश्न करते रहे ओर सच्चे रहस्यको जाननेकी उत्कंठा दिखाते रहे। इतनेमें ही संयोगवश एक ऐसी घटना हुई जिसके बाद भीखणजीके भविष्य जीवनकी गति पलट गई। यह घटना स्वामीजीके भविष्य जीवनको उज्ज्वल बनाने वाली थी। मेवाड़में राजनगर नामक एक शहर है । वहाँ की जनसंख्या काफी थी। उनमें रघुनाथजीके बहुतसे अनु. यायी भी थे। इन अनुयायियों में अधिकांश महाजन थे और उनमें कुछको जैनशास्त्रोंके मर्मका अच्छा ज्ञान था । इन श्रावकोंको कई बातोंके सम्बन्धमें शंकाएं हो गयीं और उन्होंने रघुनाथजी
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सथा उनके साधुओंका आचार शास्त्रसम्मत न देख उन्हें बन्दना करना छोड़ दिया । भीखणजीकी बुद्धि बड़ी ही तीब्र थी और दूसरोंपर उनकी बुद्धिका तत्क्षण प्रभाव पड़ता था। रघुनाथजीने इन श्रावकोंकी शक्का दूर करनेके लिये भीखणजीको योग्य समझा और अन्य कई साधुओंके साथ उन्हें राजनगर भेजा। स्वामीजीने राजनगरमें चातुर्मास किया और अनेक युक्तियोंसे श्रावकोंको समझा कर पुनः बन्दना प्रारम्भ करवाई। श्रावकोंने बन्दना करना तो स्वीकार किया फिर भी उनके हृदयसे शङ्कायें दूर नहीं हुई और भीखणजीकी युक्तिसे, उनके वैराग्यमय जीवन और सत्मार्गपर उनको चलनेकी प्रतिज्ञाके प्रभावसे ही श्रावकोंने उन्हें बन्दना करना प्रारम्भ किया। उसी रातको भीखनजीको असाधारण ज्वरका प्रकोप हुआ । ज्वरकी तीब्र वेदनाने भीखनजीके अध्यवसायोंको पवित्र कर दिया। उन्होंने सोचा मैंने सत्यको झूठ ठहरा कर ठीक नहीं किया ! यदि इसी समय मेरी मृत्यु हो तो मेरी कैसी दुर्गति हो! इसी प्रकार प्रात्म-ग्लानि और पश्चात्तापसे उनके हृदयका सारा मल धुप गया और उन्होंने प्रतिज्ञाकी कि यदि मैं इस रोगसे मुक्त हुश्रा, तो अवश्य पक्षपात रहित होकर सच्चे मार्गका अनुसरण करूंगा, जिनोक्त सच्चे सिद्धान्तोंको अङ्गीकार कर उनके अनुसार आचरण करने में किसीकी खातिर न करूंगा। इस प्रकार एक दिव्य आन्तरिक प्रकाशसे उनका हृदय जगमगा उठा और बादका उनका सारा जीवन इसी आन्तरिक प्रकाशसे आलोकित रहा।
ये स्वामीजीकी असाधारण महानताके लक्षण थे। इनमें हठधर्मी या जिद न थी कि अपनी भूल मालूम होने पर भी उसे छुपाते या उसका पोषण करते । एक सच्चे मुमुक्षुकी तरह वे तो सत्यकी खोज में लगे हुए थे। अतः जहां सत्यके दर्शन होते उसी ओर वह आगे बढ़ते । ऐहिक मान-सम्मान या पद-गौरवकी रक्षाका खयाल उन्हें तनिक भी न था। सत्यकी मर्यादाके सामने इनके लिये ये सब बातें नगण्य थीं।
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इसलिये जब उन्हें उस वखतके साधु समाजके शिथिलाचारका मालूम पड़ा तो उन्होंने उसका प्रायश्चित्त भी किया। ___यह एक आश्चर्यकी बात है कि उपरोक्त प्रतिज्ञाके बाद ही भीखएजी का बुखार उतर गया। उन्होंने श्रावकोंसे कहा कि उनका कथन युक्ति-युक्त है और साधुवर्गका आचार व प्ररूपणा अशुद्ध है।पर उन्होंने वचन दिया कि आचार्यको समझा कर शुद्ध मार्गकी प्रवृत्तिके लिये चेष्टा करेंगे । इससे श्रावक लोग उन पर विशेष श्रद्धालु बने । उन्होंने सत्यासत्यका निर्णय करनेके लिये फिरसे शास्त्रोंके गम्भीर अध्ययनका विचार किया। और ३२ सूत्रोंको ही दो दो बार खूब अच्छी तरहसे विचार पूर्वक पढ़ा। अब रघुनाथजीका पक्ष शास्त्र सम्मत न होनेमें उन्हें तनिक भी शंका न रही।
भिखणजीने जिनोक्त मार्ग अङ्गीकार करनेकी प्रतिज्ञा कर ली थी पर इससे पाठक यह न समझे कि उन्होंने रघुनाथजीके शिष्य न रहने की ठान ली थी अथवा किसी नये मतके आचार्य ही वे बनना चाहते थे। जहां सच्चा मार्ग हो वहां गुरु रूपमें या शिष्य रूपमें रहना उनके लिये समान था । आत्म-कल्यश्णका प्रश्न ही उनके सामने मुख्य था इसलिये शिष्य रह कर भी वे इसे प्राप्त कर सकते तो उन्हें कोई आपत्ति न थी। इसी लिये रघुनाथजीके पक्षको गलत समझ कर भी उन्होंने उसी समय रघुनाथजीसे अपना सम्बन्ध न तोड़ दिया। बल्कि उलटा उन्होंने यह विचार किया कि रघुनाथजीसे शास्त्रीय आलोचना करूंगा
और उन्हें और उनके सम्प्रदायको हर प्रकारसे शुद्ध मार्ग पर लानेका प्रयत्न करूंगा। उनसे मिलनेके पहले अपने भविष्यके सम्बन्धमें उन्होंने कोई निश्चय करना उचित न समझा। इस समय भिखणजीने जिस विनय और धीरजका परिचय दिया वह अवश्य ही उनके आन्तरिक वैराग्य और धर्म मावनाओं का प्रतिबिम्ब था। ___ चातुर्मास समाप्त होने पर भिखणजी रघुनाथजीके पास गये और विनम्रता पूर्वक उनसे आलोचना शुरू की। उन्होंने कहा कि हम लोगोंने
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आत्म-कल्याणके लिये ही घर-बारको छोड़ा है अतः झूठा पक्षपात छोड़ कर सच्चे मार्गको ग्रहण करना चाहिये। हमें शास्त्रीय वचनोंका प्रमाण मिला कर मिध्या पक्ष न रखना चाहिये, पूजा प्रशंसा तो कई बार मिल चुकी है । पर सच्चा मार्ग मिलना बहुत ही कठिन है। अतः सच्चे मार्गको प्राप्त करने में इन बातोंको नगण्य समझना चाहिये । आपको इसमें कोई सन्देह न रहना चाहिए कि यदि आपने शुद्ध जैन मार्गको अङ्गीकार किया तो मेरे लिए आप पहिलेकी तरह ही पूज्य रहेंगे। परन्तु भिखणजीकी इस विनम्र चर्चा का रघुनाथजी पर कोई असर न हुआ। वे पंचमारे का प्रभाव कह कर ही उनकी बातें टालते रहे । स्वामी भीखणजी इस उत्तरसे सन्तुष्ट होने वाले न थे। उनकी दृष्टिसे इस दुषमकालमें सम्यक् चरित्र पालन करनेके उद्यममें कमी आनेके बदले और अधिक बल आना चाहिए था। भगवानने जो पंचम पारे। को दुषमकाल बतलाया था उसका तात्पर्य यह न या कि इस काल में कोई सम्यक धर्मका पालन ही न कर सकेगा पर उसका अर्थ यह था कि चरित्र पालनमें नाना प्रकारकी शारीरिक तथा मानसिक कठिनाइयां रहेंगी इसलिए चरित्र पालनके लिए बहुत अधिक पुरुषार्थकी आव श्यकता होगी। उन्होंने भगवान्महावीरका यहकथन पढ़ लियाथा कि जो पुरुषार्थहीन होंगे और साधु-प्रण पालने में असमर्थ होंगे वे ही समयका दोष बतला कर शिथिलाचारको छोड़ नहीं सकेंगे।
गुरु रघुनाथजीको जब हर प्रकारकी चेष्टा करके भी स्वामीजी ठीक पथपर न ला सके तब स्वामीजी स्वयं ही उनसे अलग हो गये और शुद्ध संयम मार्गपर चलनेका दृढ़ निश्चय कर लिया। भिखणजीने बगड़ी शहरमें रघुनाथजीका संग छोड़ दिया और उनसे अलग विहार कर दिया। भारीमालजी प्रादि कई सन्त भी उनके साथ हो गये। इस प्रकार गुरु रघुनाथजीसे अलग होकर उन्होंने अपने लिये विपत्तियोंका पहाड़ खड़ा कर लिया। उस समय रघुनाथजीकी अच्छी प्रतिष्ठा थी और उनके श्रद्धालु भक्तोंकी संख्या भी बहुत अधिक थी। भिखणजीके
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( ८ ) अलग होते ही रघुनाथ जीने उनका घोर विरोध करना शुरू किया। परन्तु भिखणजी इन सबसे विचलित होने वाले न थे। वगड़ीमें भिखणजीको स्थान न देनेका ढिंढोरा पिटवा दिया गया पर ता भी भिखणजोने साधुओंके लिए निर्मित स्थानका आश्रय न लिया और बगड़ीके बाहर जैतसिंहजीकी छत्रियों में ठहरे। यहाँ पर रघुनाथजीसे फिर जोरकी चर्चा हुई और नाना प्रकारके उपाय करने पर भी स्वामीजी उनके सामिल न आये। रघुनाथजी भिखणजीको जब पुनः अपने साथ न ला सके तब उन्होंने स्वामीजीसे कहा कि मैं अब तुम्हारे पैर न जमने दूंगा। तू जहां जायगा वहां तेरा पीछा करूंगा और तुम्हारा घोर बिरोध होगा। इन धमकियोंने भीखनजी को जरा भी न डरा पाया और निर्भयताके साथ उन्होंने बगड़ीसे बिहार करना शुरू किया।
बिहार करते करते भीखणजीके अनुयायी तेरह साधु हो लिए थे। इनमें पांच रघुनाथ जीकी सम्प्रदायके, छः जयमलजी की सम्द्रदायके तथा दो अन्य सम्पदायके थे। इन साधुओंमें थिरपालजी, टोकरजी, हरनाथजी, भारीमलजी वीरभानजी आदि सामिल थे। इस समय तक १३ श्रावक भी भीखणजीकी पक्षमें हो गये थे। एक समय की बात है कि जोधपुरके बाजार में एक खाली दुकानमें श्रावकोंने सामयिक तथा पोषधादि किया। इसी समय जोधपुरके दिवान फतेहचन्दजी सींघीका बाजार होकर जाना हुआ। साधुवोंके निर्दिष्ट स्थानको छोड़ बाजारके चोहटेमें कुछ श्रावकोंको सामयिक आदि धर्मकृत्य करते देख कर उन्हें आश्चर्य हुआ। उनके पूछने पर श्रावकोंने रघुनाथजीसे भीखणजीके अलग होनेकी सारी बात कह सुनायी तथा जैनशास्त्रोंकी दृष्टि से अपने निर्मित बनाये मकानों में रहना साधुके लिए अशास्त्रीय है यह भी समझाया। फतेहचन्दजीके पूछने पर यह भी बतलाया कि भीखणजीके मतानुयायी १३ ही साधु हैं। यह सब बातें सुनकर तथा १३ ही साधु और १३ ही श्रावकोंका आश्चर्यकारी संयोग देख कर
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( ε )
वह पर खड़े हुए एक सेवक कविने एक दोहा जोड़ सुनाया और इन्हें तेरापंथी नाम से संबोधन किया ।
स्वामीजीकी प्रत्युत्पन्न मति बहुत ही आश्चर्यकारी थी, उनके जैसी उत्पात बुद्धि थोड़ी ही होती है। उस सेवक कविके मुख से आकस्मिक 'तेरापन्थी' नामकरण का वृत्तान्त सुनकर स्वामीजीने उसका बहुत ही सुन्दर अर्थ लगाया । उन्होंने कहा कि जिस पंथमें पांच महाव्रत, पांच सुमति और तीन गुप्ति हैं, वही तेरापन्थ अथवा जो पन्थ, हे प्रभु तेरा है, बही तेरापन्थ है ।
इस घटना के बाद सम्बत् १८१७ आषाढ़ सुदी १५ के दिन स्वामी भीखाजीने भगवान्को साक्षी कर पुनः नवीन दीक्षा ग्रहण की और उनके साथ में जो अन्य साधु निकले थे उन्हें दूसरी जगह भेजते समय कह दिया था कि वे भी उसी दिन ऐसा ही करें। चातुर्मास समाप्त होने पर फिर सभी साधु एकत्रित हुए और जिनकी श्रद्धा और आचार आपस में मिली वे सामिल रहे बाकीके अलग कर दिये गये । इस प्रकार तेरापन्थी मतकी स्थापना हुई और बाद में वह क्रमशः वृद्धि होता गया । स्वामीजी ने थिरपालजी को अपने से बड़ा स्थापना किया ।
इस प्रकार मतकी स्थापना तो हो गयी परन्तु आगेका मार्ग सरल न था । रघुनाथजीने बड़े जोरों से लोगोंको भड़काना शुरू किया रहने के लिये स्थान तक न मिलता था। घी दूधकी तो बात दूर रही रूखा सूखा आहार भी पूरा न मिलता था । पीनेके पानीके लिए भी कष्ट उठाना पड़ता पर स्वामीजी इन विघ्र बाधाओंसे घबराकर मार्गच्युत न हुए । उन्होंने तो यह सब सोच विचार करके ही अपना मार्ग निश्चित किया था और उसके लिए वे अपने प्राणोंकी होड़ भी लगा चुके थे। स्वामी जीतमलजीने ठीक ही कहा है 'मरण धार शुद्ध मग लियो।' अर्थात् उन्होंने प्राण देने तकका निश्चय करके ही प्रभुके
सच्चे मार्गको अङ्गीकार किया था । इस प्रकारकी कठिनाइ
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( १० )
एक दिन नहीं, दो दिन नहीं, परन्तु लगातार कई वर्षों तक सहनी पड़ी थी, पर स्वामीजीने उनके सामने कभी मस्तक नहीं झुकाया ।
इस प्रकार कठिनाइयों से लड़ते-लड़ते तथा दुःसह परिषदों को समभाव पूर्वक सहन करते-करते उन्होंने देखा कि लोग सच्चे जैन धर्मसे कोसों दूर हैं, अधिकांश लोग गतानुगतिक हैं और सत्यासत्यका निर्णय
समर्थ हैं तथा कारणावरणीय कर्मके प्रावल्यके कारण उन्हें सम काना बहुत कठिन है, धर्मके द्वेषी अधिक हैं तथा समझदारों का श्रभाव-सा है। ऐसी परिस्थिति में धर्म प्रचार करनेका उद्योग सफल ही रहेगा । इसलिये इस उद्योगमें व्यर्थ शक्ति व्यय न कर मुझे अपने ही आत्म-कल्याण का विशेष उद्योग करना चाहिये । घर छोड़ कर इस कठिन मार्ग में साधु साध्वियोंका प्रवर्जित होना मुश्किल है इसलिये उम्र तपस्या कर मुझे अपना आत्मोद्धार करना चाहिये । इस प्रकार विचार कर उन्होंने एकान्तर व्रत करना शुरू कर दिया तथा धूप में आतापना लेनी शुरू की । अन्य साधुओंने भी भिखणजीका साथ दिया । इस प्रकार स्वामीजीने अपने मत रूपी वृक्षको अपने तप रूपी जल से सींचना शुरू किया। भिखणजीके समय में थिरपालजी तथा फतेहचन्दजी नामक दो साधु थे, वे तपस्वी, सरल तथा भद्र प्रकृति के थे । उन्होंने भिखणजी को इस प्रकार उम्र तप करते देखकर समझाया कि तपस्या द्वारा अपने शरीरका अन्त न करें। आपके हाथों लोगोंका बहुत कल्याण होना सम्भव है । आपकी बुद्धि असाधारण है । अपने कल्याणके साथ-साथ दूसरोंके कल्याण करनेका सामर्थ्य भी आपमें है, आप अपनी बुद्धि और शक्तिका प्रयोग करें । आपसे बहुत लोगों के समझाए जानेकी आशा है । इन वयोवृद्ध साधुओंके परामर्श को भिखणजीने स्वीकार किया और तभीसे अपने धार्मिक सिद्धान्तोंका लोगों में प्रचार करनेका विशेष उद्योग करने लगे। उन्होंने सिद्धान्तोंको डालों में लिख-लिख कर शास्त्रीय उदाहरणोंसे उनका पोषण किया ।
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( १ ) न्याय तथा तार्किक दृष्टिसे उन्होंने दान दया पर सुन्दर दालें रची, व्रत अव्रतको खूब समझाया। नव तत्वों पर एक महत्त्वपूर्ण पुस्तक लिखी, श्रावकके व्रतों पर नया प्रकाश डाला। शील ( ब्रह्मचर्य ) के विषय पर महत्व पूर्ण रचना की। इस प्रकार क्रमशः उनके विचार जनताके हृदय पर असर करते गये। साध्वाचार पर ढालें रच कर शिथिलाचारको हटानेका प्रचार किया और सच्चा साधुत्व क्या है इसका अपने चरित्रसे लोगों के सामने उदाहरण रखा। इस प्रकार उन्होंने अपने मनकी सारी विचार धाराको शास्त्रीय मतसे एकी करणकर दिखाया और अपने मतकी जड़को पुष्ट कर दिया। जो मत केवल १३ साधु और श्रावकों को लेकर शुरू हुआ था वह आज फैलता-फैलता दो लाखकी संख्या तक पहुँच गया है। श्राज मारवाड़, मेवाड़,बिकानेर, हरियाना, जयपुर, बंगाल, आसाम, पंजाब, मालवा, उडिष्य, मद्रास, महीशूर,मध्यप्रदेश, कच्छ, खानदेश, गुजरात और बम्बई प्रभृति सभी स्थानोंमें इस मतके अनुयायी हैं। ___भीखणजीके धर्म प्रचारके क्षेत्र मारवाड़, मेवाड़ ढाड़, तथा कच्छ आदि प्रदेश ही रहे । कच्छ प्रदेश में स्वयं स्वामीजीका बिहार न हुआ था परन्तु वहां उनके मतका प्रचार श्रावक टिकम डोसीके द्वारा हुआ था। भीखणजीने अपने जीवन कालमें ४६ साधु तथा ५६ साध्वियोंको प्रवर्जित किया था जिनमेंसे २० साधु तथा १७ साध्वियाँ साधु मार्गकी कठोरता-सहनमें असमर्थ हो गण बाहर हो गयी थीं। श्रावक तथा प्राविकाओंकी संख्या भी बहुत बढ़ गई थी। इस प्रकार स्वामीजी अपने मत प्रचारकी सफलता अपने जीवन कालमें ही देख सके थे । स्वामीजीका देहावसान भादवा सुदी १३, संम्वत् १८६० को हुधा था। उन्हें अन्त समय तक जागरूकता रही। अपने अन्तिम दिनों में उन्होंने गण समुदायके हितके लिये जो उपदेश दिया वह स्वर्णाक्षरोंमें लिखने योग्य है।
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( १२ )
द्वितीय प्राचार्यस्वामीजीके बाद द्वितीय आचार्य श्रद्धेय श्री श्री १००८ श्री श्री भारीमालजी स्वामी हुए। आपका जन्म मेवाड़के मूहो ग्राममें संम्वत् १८०३ में हुआ था। आपकी दीक्षा मारवाड़के केलवा प्राममें हुई थी। स्वामी भीखणजीने अपने जीवन काल में ही इन्हें युवराजपदवीसे विभूषित कर दिया था । इनके पिताका नाम कृष्णजी लोढ़ा और माताका नाम धारिणी था । इनके शासन काल में ३८ साधु और ४४ साध्वियोंकी प्रवर्जा हुई। आप बड़े ही प्रतापी आचार्य हुए। खुद स्वामी भीखणजीने अन्त समय में इनकी प्रशंसा की थी और सर्व साधुओंको उनकी आज्ञामें रहनेका आदेश किया था। उन्होंने कहा था कि ऋषि मारीमालजी सच्चे साधु हैं, आचार्य पदकी जिम्मेवारी उठाने लायक भारीमालजीसे बढ़कर दूसरा कोई नहीं। मैं सर्व साधुत्रोंको आदेश करता हूँ कि वे भारीमालजीकी आज्ञामें वर्ते। इनकी दीक्षा १० दस वर्षकी अवस्थामें ही हो गयी थी। वे बाल ब्रह्मचारी थे। आपका देहान्त ७५ वर्षकी अवस्थामें मेवाड़के राजनगरमें मिती माघ वदो ८ संम्वत् १८७८ को हुआ था।
तृतीय आचार्य तृतीय प्राचार्य श्री श्री १००८ श्री श्री रायचन्दजी स्वामीका जन्म बड़ी राबलियाँ ग्राममें संम्वत १८४७ में हुआ था और राजनगरमें उनको पाटगद्दी मिली थी। उनके पिताका नाम चतुरजी बम्ब था। ये
ओसवाल जातिके थे। उनकी माताका नाम कुसलांजी था। ये भीखणजीके शासन कालहीमें नाबालक अवस्थामें तीब्र बैराग्यसे दीक्षित हो गये थे। स्वामी भीखणजीके देहावसानके समय इनकी उम्र छोटी ही थी। इन्होंने अपने शासनकाल में ७७ साधु और १६८ साध्वियोंको दीक्षित किया था। इनका देहान्त ६२ वर्षकी उमरमें माघ वदी १४
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( १३ )
संम्वत् १९०८ को रावलियाँ में हुआ। आपने स्वामीजी श्री जीतमल्लजीको भावी आचार्य के पदके लिये मनोनीत किया था ।
चतुर्थ श्राचार्य प्रख्यात जीतमल्लजी स्वामी
चतुर्थ श्राचार्य श्री श्री १००८ श्री श्री जीतमलजी खामीका जन्म सं० १८६० में आसोज सुदी १४ को मारवाड़के रोहित ग्राम में हुआ था। उनके पिताका नाम आइदानजी गोलेछा और माताका नाम कलुजी था। इनकी दीक्षा नव वर्ष की उम्र में जयपुर में हुई थी । भीख जीको छोड़ कर अन्य सब आचार्योंकी तरह ये भी बाल ब्रह्मचारी थे और बाल्यावस्था में ही तीव्र वैराग्यसे अपनी माता तथा दो भाईके साथ दीक्षा ली थी। जीतमलजी महाराज असाधारण विद्वान् और प्रतिभाशाली कवि थे । केवल ग्यारह वर्षकी अवस्था से ही उन्होंने कविताएँ रचना करनी शुरू कर दी थी। उनकी कविताओंकी संख्या तीन लाख गाथाओं के लगभग है । इनका शास्त्रीय ज्ञान अगाध और आश्चर्यकारी था। ऐसा कोई भी आध्यात्मिक विषय न था जिस पर वे लिख न गये हैं । स्वतंत्र रचनाओं के अतिरिक्त उन्होंने जैन सूत्रोंका पद्यानुवाद भी किया था। उनके अनुवाद में भाषाकी सरलता, अर्थकी स्पष्टता, मूल भावोंकी रक्षा तथा व्यक्त करनेकी सरलता से आश्चर्यकारी पांडित्य झलक रहा है। भगवती सूत्र जैसे विशाल तथा सूक्ष्म रहस्यपूर्ण प्रन्थका अनुवाद करना कम विद्वत्ताका काम नहीं हो सकता । इसी प्रकार उत्तराध्ययन, दशवैकालिक सूत्र आदि शास्त्रोंका भी उत्तमता पूर्वक अनुवाद किया है। ये अनुवाद उनकी असाधारण विद्वत्ताat चिरस्थायी कीर्तियाँ हैं । इन अनुवादों के अतिरिक्त उनकी मूल रचनाएँ भी कम नहीं हैं। 'भ्रम विध्वंसनम्', 'जिन श्राज्ञामुख मण्डनम्', 'प्रश्नोत्तर तत्त्ववोध', आदि ग्रन्थ तात्त्विक विषयोंकी बडी उत्तम पुस्तकें हैं। . एक एक विषयके सारे शास्त्रीय विचार और प्रमाणको
एक जगह एकत्रित करने में उन्होंने जो अथाह परिश्रम किया है वह
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( १४ )
किसी भी निष्पक्ष विद्वानकी प्रशंसा प्राप्त किये बिना नहीं रह सकता । इनकी फुटकर रचनाएँ भी कम नहीं हैं। जीवन चरित्र लिखने में तो आप और भी अधिक सिद्धहस्त थे । 'भिक्षुयश रसायन' तथा 'हेम नव रसो' नामक जीवन चरित्रमें आपने अपनी प्रतिभाका अपूर्व परिचय दिया है । यद्यपि ये पुस्तकें मारवाड़ी भाषा में है फिर भी यह कहे बिना नहीं रहा जाता कि हिन्दी साहित्य में ही नहीं पर दूसरी भाषाओं के साहित्य में भी ऐसे कलापूर्ण जीवन चरित्र कम ही मिलेंगे। श्री जयाचार्यने धर्मका अच्छा प्रचार किया था । उनके शासन कालमें १०५ साधू और २२४ साध्वियां दीक्षित हुई थीं । आपका देहावसान ७८ वर्षकी अवस्था में भाद्र बदी १२ सं० १६३८ को जयपुर में हुआ। आपने सर्वथा योग्य समझ स्वामीजी श्री मघराजजीको पाटवी चुन लिया था । पंचम आचार्य —
पांचवें आचार्य श्री श्री १००८ श्री श्री मघराजजी स्वामीका जन्म बीकानेर रियासत के बिदासर गांवमें चैत सुदी ११ सं० १८६७ को हुआ था। उनकी दीक्षा भी बाल्य कालमें ही लाडनू में हुई थी । जयपुर में वे श्राचार्य पद पर आसीन हुए थे । उनके पिताका नाम पूरणमलजी बेगवाणी और माताका नाम वन्नांजी था । उनका देहान्त ५३ वर्ष की अवस्था में चैत वदी ५ सं० १६४६ में सरदारशहर में हुआ। उन्होंने ३६ साधू और ८३ साध्वियोंको प्रवर्जित किया । आपने अपने पट्टलायक स्वामीजी श्रीमाणकलालजीको निर्वाचित किया था ।
षष्ठ श्राचार्य —
छट्ठे आचार्य श्री श्री १००८ श्री श्री मानिकलालजी स्वामीका जन्म जयपुरमें सं० १६१२ की भादवा बदी ४ को हुआ था। उनकी दीक्षा लाडनूं में छोटी उम्र में ही हुई थी और वे सरदारशहर में आचार्य बनाये गये थे । उनकी माताका नाम छोटांजी और पिताका नाम हुकमचन्दजी
भरड़ श्रीमाल था । उन्होंने केवल १६ साधू और २४ साध्वियों को ही
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( १५ ) दीक्षा दी थी। उनका देहावसान ४२ वर्षकी अपेक्षाकृत कम अवस्थामें ही हो गया था। उनका देहावसान सं० १६५४ की कार्तिक बदी ३ को सुजानगढ़में हुआ था। आप कोई पाटवी नहीं चुन गये थे इसलिये प्रायः २।। महीना तक आचार्य पद पर कोई भी न रहे। परन्तु शासन का संगठन और मर्यादायें इतनी सुन्दर थी कि जहाँभी साधुसंत थे वे अपनेमें जो बड़े दीक्षित थे उनकी आज्ञा मूजव चलते रहे। चोमासेके बाद जब अधिकांश साधु लाडनूंमें एकत्रित हुए तब सर्वसम्मतिसे स्वामीजी डालचन्दजीको आचार्य पदवी दी।
___ सप्तम आचार्यसातवें आचार्य श्री श्री १००८ श्री श्री डालचन्दजी स्वामीका जन्म उज्जैन (मालवा ) में मिती आषाढ़ सुदी ४ सं० १६०६ को हुआ था। इनकी दीक्षा भी बाल्यावस्थामें इन्दोरमें हुई थी तथा लाडनूमें वे प्राचार्य पद पर अवस्थित हुए थे। उनके पिताका नाम कानीरामजी पीपाड़ा और माताका नाम जड़ावांजी था। इनका देहावसान ५७ वर्षकी अवस्थामें सं० १९६६ के भाद्र मासमें लाडनूं में हुआ। उन्होंने ३६ साधु और २२५ साध्वियां दीक्षित की।
अष्टम आचार्यआठवें प्राचार्य, श्री श्री १००८ श्री श्री प्रातःस्मरणीय श्री कालुरामजी महाराजका जन्म मिती फाल्गुन शुक्ला २ सं० १९३३ को छापर (बीकानेर) में हुआ था। आपके पिताजी का नाम मूलचन्दजी कोठारी और माताका नाम छोगांजी था। आपकी दीक्षा सं० १९४४ मिती आसोज सुदी ३ को आपकी माताजी सती छोगांजीके साथही बिदासरमें हुई थी। दीक्षा संस्कार पांचवें आचार्य स्वामी मघराजजी महाराजके हाथसे हुआ था। पूज्यजी महाराज स्वामी डालचन्दजीके देहावसानके बाद आपको पाट गद्दी मिली। पापको सं० १६३६ मिती भादवा सुदी १५ को प्राचार्य पद मिला था। आपकी माता सती
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( १६ )
छोगांजी लगभग ६६ साल की उम्र में स्वर्ग पधार गई । नाना प्रकार के कठिन तप और व्रतोंको करते रहने से इनका शरीर क्षीण हो गया था । देह दुर्बलता और आँखोंकी ज्योति चले जानेसे आपको विदासर (बीकानेर) में कुछ वर्ष तक स्थानाथ कर दिया गया था । अष्टम आचार्य महाराज के शासन कालमें धर्मका बहुत प्रचार हुआ। आपने १५५ साधु और २५५ साध्वियां दीक्षित की थी । श्रावक तथा श्राविकाओं की संख्या भी काफी बढ़ी है। थली, दुढाड, मारवाड़, मेवाड़, मालवा, पंजाब, हरियाना, आदि देशों के अतिरिक्त बम्बई, गुजरात दक्षिण आदि दूर दूर प्रांतों में आपने साधुओं के चौमासे करवाये जिससे धर्मका अधिक प्रचार हुआ है। अष्टम आचार्य श्रीकालूरामजी का शास्त्रीय अध्ययन बड़ा ही गम्भीर था । वे संस्कृतके अगाध पण्डित थे । अपने सम्प्रदाय के साधु और साध्वियों में आप संस्कृत भाषाका विशेष रूप से अध्ययन अध्यापना कराते रहे । आपका असाधारण शास्त्र ज्ञान, प्रभावोत्पादक धर्म उपदेश, गम्भीर मुख-मुद्रा, पवित्र ब्रह्मचर्यका तेज और व्यक्तित्वकी असाधारणता, हृदय पर जादूका सा असर डालती थी । उनके संसर्ग में जो आते थे उनकी भक्ति उनके प्रति सहज ही हो जाती थी । जैन शास्त्रोंके रहस्य और सच्चे अर्थको बतलाने में आपने भारतके दार्शनिकों को ही नहीं पाश्चात्य देशके विद्वानों की भी प्रशंसा प्राप्त की थी ।
·
जैन साहित्य संसार प्रसिद्ध विद्वान: जर्मन देशवासी डा० हरमन (चिकागो ( अमरिका ) युनिवर्सिटीके धर्मके अध्यापक) जैकोबीने जो कि कई वर्ष तक कलकत्ता विश्वविद्यालय में जैन दर्शनके अध्यापक थे, आपके दर्शन किये थे और शास्त्रोंके कई रहस्योंको समझा था । चिकागो ( अमरिका ) युनिवर्सिटीके धर्मके अध्यापक डा० चार्ल्स डब्लू गिलकी भी आपके दर्शन कर प्रभावित हुये थे । अपने भाषण में उन्होंने तेरापन्थी धर्मके सिद्धान्त और साध्वाचार सम्बन्धी नियमोंको
भारत, यूरोप और अमेरिका के अपने मित्रोंके सामने रखनेका विचार
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( १७
प्रकट किया था। कौंसिल ऑफ स्टेट के माननीय सदस्य सुखबीरसिंह जी (मुजफ्फरनगर निवासी) ने नाबालिग वेला रजिष्ट्री कानून के विषय में दो बार श्री पूज्यजीके दर्शन किये और तेरापंथी दीक्षा- नीतिको पूर्ण रूप से अनुकरणीय बताया । उदयपुर के महाराणाजी, बावके राणाजी आदि बड़े बड़े नरेश आपके दर्शन कर कृतकृत्य हुए। आप सं० १६६३ भाद्र शुक्ला ६ के दिन गंगापुर में स्वर्गधाम पधारे । नवम आचार्य श्री श्री १००८ श्री तुलसीरामजी महाराज -
आपका जन्म लाडनूंंमें सम्वत् १६७१ मिति कार्तिक शुक्ल २ को हुआ | आपके पिताका नाम भूमरमलजी खटेड़ तथा माताका नाम वदनाजी था । आपकी दीक्षा सम्वत् १६८२ की मिती पौष कृष्ण ५ को हुई। आपको अष्टम आचार्य महोदय ने सम्वत् १६६३ भाद्र शुक्ल ३ के दिन अपना भावी पट्ट घर घोषित किया । बाईस वर्षकी युवावस्था में विशाल संघका भार आप पर पड़ा। परन्तु आप अष्टमाचार्य महोदय के यत्न व चेष्टा असाधारण विद्वत्ता, पांडित्य, वैराग्य एवं त्यागकी प्रतिमूर्ति बन चुके थे । आप सम्बत् २००० की चैत बदी १५ तक ७६ साधु एवं १६६ साध्वियों को दीक्षित कर चुके हैं। विक्रम सम्वत् २००० के अन्त तक आपकी आज्ञा में १७० सन्त व ४२४ सतियांजी मौजूद हैं । सम्वत् १६६४ सालमें आपने स्वहस्त से अपनी जन्मदात्री मातुश्री वदनांजीको दीक्षित कर माताके प्रति सन्तानके वास्तविक कर्तव्य का पालन किया। आपके अप्रज स्वामीजी श्री चम्पालालजीकी दीक्षा सम्वत् १६८१ सालमें हुई। आपकी भगिनी श्री लाडोंजी की दीक्षा आपही के साथ सम्बत् १६८२ में हुई थी। एक ही परिवारके ४ मुमुक्षु जीव इस संसारको असार समझ श्री वीतराग भगवान प्ररूपित शुद्ध संयम मार्ग ग्रहण कर आज जगत के सामने एक ज्वलन्त उदाहरण दिखा रहे हैं। ऐसे एकही परिवारके एकाधिक पीक्षित, पिता पुत्र कन्या, माता पुत्र, पति पत्नी आदि जैन श्वेताम्बर
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( १८ )
तेरापंथी सम्प्रदाय के इतिहास में बहुत मिलेंगे । जो सब माया मोहाछन मनुष्य दीक्षा को सांसारिक उन्नति के अन्तराय भूत समझते हैं वे जरा गहन विचार करके देखें कि दीक्षा मनुष्य को कितने उच्चस्तर में लेजा सकती है। नवमाचार्य्य एक योग्य गुरुके योग्य शिष्य हैं । असा धारण दूर दृष्टि सम्पन्न अष्टमाचार्य - स्वहस्त दीक्षित, स्वहस्त शिक्षित, स्वहस्त निर्वाचित नवमाचार्यको जिस पद पर स्थापित करने की व्यवस्था कर गये वह आज उनके स्वर्गारोहण के सात वर्षके भीतर ही गुण प्राहकताकी यथेष्ट परिचायक बन सबको मालूम पड़ रही है। वर्तमान श्राचार्यका गुण वर्णन कहां तक किया जाय। वह तो देखने एवं अनुभव करनेका विषय है । श्रपका संस्कृत व्याकरण, काव्य कोष, न्याय आदिका ज्ञान अगाध है । आप एक प्रतिभाशाली अद्वितीय कवि भी हैं। हाल में आपने दीक्षागुरु अष्टमाचार्य की कथामय जीवनी १०६ ढाल - षट् खंडमें रची है। " श्री कालूयशो विलाश” नामक इस
-
पूर्व प्रन्थकी जो रचना आपने की है वह राजस्थानी भाषा व हिन्दी साहित्यकी एक अनुपम सम्पद है । हम प्रत्येक हिन्दी भाषा भाषी विद्वानों से यही निवेदन करते हैं कि आप लोग इस अनुपम काव्यका सुधा स्वाद करें और देखें कि इतिहास, जीवनी, धर्मतत्व, समाजतत्व, देश वणन आदि आदिका कितना सुन्दर समन्वय इसमें किया गया है। आपकी गुणगाथा श्रवण कर श्रीमान् बीकानेर नरेश महाराजधिराज श्री सादुलसिंहजी महाराजने आपका दर्शन किया एवं लंडन यूनीवर्सिटी के संस्कृत अध्यापक डा० थामसन भी आपके दर्शनार्थ आये । तेरापन्थियोंके सैद्धान्तिक मतबाद
श्री जैन श्वेताम्बर तेरापन्थीधर्मके अनुयायी मूर्तिपूजा नहीं करते और न मूर्तिपूजा करना मोक्षका साधन ही मानते हैं। वे तीर्थकरों की भाव पूजा या ध्यान करते हैं। जिन्होंने मोक्ष प्राप्त कर लिया है, या
जिन्होंने संसार त्यागकर साधु-मार्ग स्वीकार किया है, एवं साध्वाचारका
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( १३ )
यथा रीति पालन करते हैं वे ही तेरापन्थियोंके बन्दनीय और नमस्य हैं। इस प्रकार मूर्ति पूजा न कर केबल गुण-पूजा करना ही तेरापन्थियोंके सिद्धान्तकी विशेषता है ।
तेरापन्थी साधु लौकिक और पारलौकिक उपकारमें रात दिनका अन्तर समझते हैं। लौकिक उपकारकी ओर किंचित भी ध्यान न देकर आत्मिक उत्थान द्वारा नैतिक उन्नति और पारलौकिक कल्याण सिद्ध करनेका रास्ता दिखलाते हैं। सांसारिक कार्योंके साथ वे कोई संसर्ग नहीं रखते और न उस सम्बन्धमें कोई उपदेश ही करते हैं । उनके सारे उपदेश धार्मिक होते हैं और केवल धर्म प्रचारके लिये ही उनका जीवन उत्सर्ग रहता है ।
दीक्षा लेने के बाद से देहावसान तक तेरापंथी साधुत्रोंको निम्नलिखित शात्रोक्त व्रत और नियमों का पालन करना पड़ता है।
(क) साधुओं को पांच महाव्रत का पालन करना पड़ता है। ( १ ) प्राणातिपात विरमण व्रत: - इस व्रतके अनुसार साधुको सम्पूर्ण श्रहिंसक बनना पड़ता है । साधु बनने के साथ ही उन्हें यह प्रतिज्ञा या व्रत लेना पड़ता है कि मैं जीवन पर्यन्त सूक्ष्म या बादर,
स या स्थावर किसी प्रकारके प्राणीकी हिंसा मन, बचन या कायसे नहीं करूंगा, न कराऊंगा और न करने बालेका अनुमोदन ही करूंगा । और वे केवल प्रतिज्ञा करके ही नहीं रह जाते परन्तु अपने जीवनको इस प्रकार संचालन करते हैं कि जिससे वे इस नियम व व्रतको सम्पूर्ण रूप से पालन कर सकें। गर्मी से गर्मी में भी वे पंखेसे हवा नहीं लेते; ठण्ड से ठण्ड पड़ने पर भी तपनेके लिये आगीका सहारा नहीं लेते, भूखसे प्राण निकलते हों तब भी सचित्त वस्तु नहीं खाते । फूलको नहीं तोड़ते, घाम पर नहीं चलते, सचित्त पानी का स्पर्श नहीं करते, इस प्रकार अपने जीवनको हर प्रकार से संयमी और अहिंसक बनाने के
लिए असाधारण त्याग करते हैं। जैन साधु, सच्चे जैन-साधु, अहिं
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( २० )
साको सम्पूर्ण रूप से पालन करने के लिए हर प्रकारका त्याग करते हैं। यहाँ तक कि अपने प्राणों को भी उसकी साधना में नियोजित कर देते हैं । यही कारण है कि संसार में रहते हुए भी वे सम्पूर्ण अहिंसाका पालन कर सकते हैं । नीचे जैन साध्वाचार के कुछ ऐसे नियम दिये जाते हैं जिनसे पाठक समझ सकेंगे कि जैन साधु हिंसासे, सूक्ष्म से सूक्ष्म हिंसा से बचनेका किस प्रकार प्रयत्न करते हैं:
.
-
( १ ) हिंसा से बचने के लिए जैन साधु खुद भोजन नहीं बनाते, न उनके लिए बनाये हुए, खरीदे हुए, देनेके लिए लाए हुए भोजनको लेते हैं । भिक्षा में चित, प्राशुक और निर्दोष आहार पानीका संयोग मिलता है तो उसे ग्रहण करते हैं अन्यथा बिना आहार पानीके ही . सन्तोष करते हैं। कोई उनके लिए भोजनादि न बना लें इसके लिए वे पहलेसे कहते भी नहीं कि वे किसके यहाँ गोचरी ( भिक्षार्थ गमन ) करेंगे |
(२) जैन साधु माधुकरी वृत्तिसे भिक्षा करते हैं अर्थात् बिना किसी एकके ऊपर भार स्वरूप बने वे थोड़ी थोड़ी अनेक घरों से मिक्षा ग्रहण करते हैं ।
( ३ ) कोई भिखारी या अन्य याचक किसी घर पर भिक्षा मांग रहा हो तो साधु भिक्षा मांगने के लिए वहाँ नहीं जाते। क्योंकि ऐसा करने से दूसरेके अन्तराय पहुँचे ।
( ४ ) हरी दूब, घास, राखसे ढकी हुई आगी, जल आदि पर से होकर साधु विहार नहीं करते ।
(५) यदि कोई दुष्ट, साधुको मारने के लिए आवे तो साधु प्रत्याक्रमण नहीं करते बल्कि समभाव पूर्वक उसे समझाते हैं और उसके न समझने से समभाव से आक्रमणको सहन करते हैं और विचार करते हैं कि मेरी आत्मा का कोई नाश नहीं कर सकता ।
(६) साधु खान पान, स्वच्छता तथा मल-विसर्जनके ऐसे
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( २१ )
नियमोंका पालन करते हैं कि जिससे उनके निमित्तिसे जीव जन्तुओं की हत्पत्ति या विनाश न हो !
( ७ ) किसीके कठोर बचनोंको सुनकर जैन साधु चुपचाप उसकी उपेक्षा करते हैं और मनमें किसी प्रकारका विचार नहीं लाते, मारे जाने पर भी मनमें द्वेष लाना जैन साधुके लिए मना है । ऐसे अवसर पर पूर्ण सहनशीलता रखना ही साधुका आचार है ।
इस प्रकार जैन धर्म के सभी नियमों में अहिंसाको स्थान दिया गया है और सच्चे जैन साधु सम्यक् प्रकारसे उसका पालन करते हैं । तेरापंथी साधु इन नियमोंको यथारूप पालते हैं । दूसरों की भांति शिथिलाचारी बनकर व्रत भङ्ग नहीं करते ।
(२) मृषावाद विरमण व्रत: - इस व्रत के अनुसार साधु प्रतिज्ञा करते हैं कि वह किसी प्रकारका असत्य भाषण नहीं करेंगे। उनकी प्रतिज्ञा होती है कि मैं मन वचन या कायासे न झूठ बोलूंगा, न बुलाऊँगा, न जो बोलेगा उसका अनुमोदन करूँगा । इस प्रकार असत्य भाषणका त्याग कर लेने और सम्पूर्ण सत्य व्रतको अङ्गीकार कर लेने पर भी साधुको बोलते समय बहुत सावधानी और उपयोगसे काम लेना पड़ता है । सत्य होने पर भी साधु सावद्य पापयुक्त कठोर भाषा नहीं बोल सकते। उन्हें सदा असंदिग्ध, अमिश्रित और मृदु भाषा बोलनी पड़ती है । जिस सत्य भाषण से किसीको कष्ट हो या किसी पर विपत्ति आ पड़े वैमा सत्य बोलना भी साधुके लिए मना है । इसलिये कोई भी तेरा पंथी साधु किसीके पक्ष या विरुद्ध साक्षी नहीं दे सकते और न साधु किसी भी हालत में मिथ्याका श्राश्रय ही ले सकते हैं । जहां सत्यवाद साधुके लिये प्रयुक्तिकर हो वहां वे मौन अवलम्बन करते हैं ।
( ३ ) अदत्तादान विग्मरण व्रत: - इस व्रत के अनुसार बिना दिये
एक तृण भी लेना साधुके लिए महापाप है । साधुको प्रतिज्ञा करनी
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( २२ )
पड़ती है कि गाँव हो या जङ्गलमें छोटी हो या बडी, कोई भी बिना दी हुई वस्तु वह न लेगा, न दूसरेसे लिरायगा, न लेते हुओंका अनुमोदन करेगा। इस व्रतके ही कारण जैन साधु बिना माता पिता स्वामी या स्त्री या अन्य सम्बन्धियोंकी आज्ञाके, दीक्षाके लिए तैयार होने पर भी, किसी व्यक्तिको दीक्षा नहीं देते। यह व्रत भी अन्य व्रतोंकी तरह मन वचन और कायासे ग्रहण करना पड़ता है।
(४) मैथुन विरमण व्रत: - इस व्रत के अनुसार साधुको पूर्ण ब्रह्मचर्य पालन करना पड़ता है। साधुको मन वचन और कायासे पूर्ण ब्रह्मचर्य पालनकी प्रतिज्ञा लेनी पड़ती है । वह देव, मनुष्य या तिर्यच्च कोई सम्बन्धी मैथुन नहीं कर सकता, न करा सकता और न मैथुन संभोग वालाका अनुमोदना कर सकता है। स्त्री मात्रको स्पर्श करना साधुके लिए और पुरुष मात्रका स्पर्श करना साध्वियोंके लिए पाप है । जिस मकान में साध्वियां या अन्य स्त्रियां रहती हों वहां साधु रात्रि वास नहीं कर सकते और न एक स्त्रीके पास दिन में ही वे ठहर सकते हैं।
( ५ ) अपरिग्रह व्रत: - इस व्रत के अनुसार साधुओं को सब प्रकारके धनधान्यादि परिग्रह का त्यागी होना पड़ता है। वे किसी प्रकार की जायदाद नहीं रख सकते, न धन जेवर, दास दासी आदि ही रख सकते हैं । अपरिग्रह व्रतका मन वचन और कायासे पालन करना पड़ता है और जिस प्रकार वे स्वयं परिग्रह नहीं रख सकते उसी प्रकार दूसरों से भी परिग्रह नहीं रखवा सकते और न जो दूसरे रखते हैं उनका अनुमोदन कर सकते हैं ।
उपरोक्त पाँच व्रतोंके अतिरिक्त एक छट्टा रात्रिभोजनत्याग व्रत भी साधुओंको पालन करना पड़ता है। इस व्रत के अनुसार साधु किसी प्रकारका आहार पानी रात्रि में - सूर्यास्तसे सूर्योदय तक नहीं
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करते । मन वचन और कायासे उन्हें इस व्रतका पालन करना पड़ता
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( २३ ) है। जिस प्रकार साध स्वयं सूर्यास्तके बाद किसी प्रकारका आहार नहीं करते उसी प्रकार न दूसरोंसे आहार करवाते हैं और न करने वालेका अनुमोदन करते हैं। यह छट्ठा ब्रत अहिंसाव्रतकाहो अंग है।
(ख) उपरोक्त छः व्रतोंके अतिरिक्त साधुको निम्नलिखित पांच समितियोंको पालन करना पड़ता है:
(१) इर्याः-इस समितिके अनुसार मार्गमें चलते समय साधुको उपयोग पूर्वक आगेका मार्ग देख कर चलना पड़ता है। साधु रातमें मलमूत्रके त्यागको छोड दूसरे कार्यके लिये अछायामें नहीं जा सकते । ढके हुए स्थानमें भी विशेष यन पूर्वक जयनाके साथ चलना पड़ता है। उन्मार्गको छोड़कर सीधे सरल मार्ग पर ही चल सकते हैं। गमनागमन करते समय बहुत उपयोग और संभालपूर्वक गमन करना पड़ता है। जिससे कि सूक्ष्मसे सूक्ष्म प्राणीको भी इजा (कष्ट) न पहुंचे।
(२) भाषा-विचारपूर्वक सत्य, सरल, निर्दोष और उपयोगीवचन बोलना, अपने वचनोंसे किसीको कष्ट न पहुँचाना इस समितिका उद्देश्य है। जिस वचनसे अविश्वास उत्पन्न हो, दूसरा शीघ्र कुपित हो, दूसरे का अहित हो वैसी भाषा बोलना साधुके लिए सर्वथा वर्जनीय है।
(३) एषणा-इस समितिके अनुसार साधुको श्राहार पानी, वस्त्र, पात्रादि उपकरण तथा पाट बाजोटादि वस्तुएँ लेनेके पूर्व सावधानीसे काम लेना होता है। उनकी भिक्षा करने, उनसे स्वीकार करने तथा उनको उपभोगमें लानेमें संयमको किसी प्रकारसे आपात न पहुँचे इस प्रकार उपयोग या सावधानी रखनी पड़ती है। निदोष तथा परिमित भिक्षा, अल्प कल्पानुसार उपकरण आदि ग्रहण करना इस समितिके भीतर पा जाता है। किसी वस्तुको प्रहण करनेके पूर्व साधुको इस षातकी पूरी खोजकर लेनी पड़ती है कि कहीं साधुको उद्देश करके ही तो वह वस्तु नहीं खरीदी, लायी या बनायी गयी है।
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( २४ ) (४) श्रादान भंड निक्षेपण-वन पात्रादि उपकरणोंको उपयोग पूर्वक उठाना और रखना जिससे कि किसी जीवको कोई इजा (कष्ट) न पहुँचे। चीजको अच्छी तरहसे देख पूछ कर ही रखना उठाना साधके लिए कर्त्तव्य है।
(५) उच्चारादि प्रतिष्ठापन-मल, मूत्र, श्लेष्म या अन्य परिहार्य वस्तुको, किसी जीवको दुःख न पहुँचे ऐसे स्थानमें उपयोग पूर्वक विसजन करना इस समितिका उद्देश्य है। जैन साधु मल, मूत्र श्लेष्मादि जीव-उत्पन्न करने वाली त्याज्य वस्तु तथा गंदगी, रोगादि फलाने वाली परिहार्य चीजोंको जहां तहां नहीं फेंक सकते । अपथ्य आहार, न पहरे जाने योग्य फटे कपड़े तथा अन्य विसर्जनयोग्य चीजोंको जीव रहित एकान्त स्थानमें उत्सर्ग करते हैं।
(ग) तीन गुप्ति-मन, वचन तथा काया गुप्तिके सम्यक् पालनमें साधुको सदा सर्वदा सचेष्ट रहना पड़ता है।
(१) मन-मनके दुष्ट व्यापारोंको रोकना । सरंभ, समारंभ तथा प्रारम्भसे मनको रोककर शुद्ध क्रियामें प्रवृत्त करना।
(२) वचन-वाणीके अशुभ व्यापारको रोकना अर्थात् वाणीका संयम करना।
(३) कायाको-बुरे कार्यों से रोकना अर्थात् देहको संयम में रखना।
समितियाँ साधु जीवनकी प्रवृत्तियोंको निष्पाप बनाती है। अर्थात् श्रावश्यक क्रियाएँ करते हुए भी साधु समितियों के पालनके कारण पापके भागी नहीं बनते तथा गुप्तियाँ अशुभ व्यापारसे निवृत होने में सहायता करती हैं। इस प्रकार साधुका जीवन सम्पूर्ण संयमी होता है । वे इतने व्यवहार कुशल होते हैं कि संयमी जीवनकी सारी क्रियाओंको करते हुए भी अपनी सावधानी या उपयोगके कारण पाप कर्म का उपार्जन नहीं करते।
जैन श्वेताम्बर तेरापन्थी साधु उक्त नियमोंको संपूर्णतया पालते हैं
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( २५ ) और इनके पाजनेके विषयमें जो सब कठोर नियमादि समय समय पर अनुभवी बहुदर्शी प्राचार्यों ने बनाये हैं उन पर पूर्ण ध्यान रखते हुए वे अपना संयम जीवितव्य निर्वाह करते हैं।
जैन श्वेताम्बर तेरापन्थी मत कोई नया सम्प्रदाय नहीं है। परन्तु वह श्रादि अथवा मूल जैनधर्म ही है ! जैनधर्मका जो आदि स्वरूप था वह हजारों वर्षों के पड़ोसी धर्मों के संसर्ग या प्रभावके कारण इतना बदल गया था कि आज जब उसका असली स्वरूप सामने लाया जाता है तो लोग उसे अनोखा धर्म समझ कर उसका मनमाना अनुचित विरोध करने लगते हैं । परन्तु यह कोई आश्चर्यकी बात नहीं है। जैनधर्ममें समय तथा वातावरण के प्रभावसे जो विकार पाया लोग धीरे-धीरे उससे इतने परिचित एवं अभ्यासी हो गये कि आज उनके लिए जैनधर्मके असली और विकृत रूपमें भेद करना भी मुश्किल हो गया। जब धर्म अपने उच्च स्थानसे गिरना शुरू हुआ और अन्य पड़ोसी धर्मो ने जोर पकड़ा तो कुछ जैन लेखक या व्याख्याकारोंने जैन सूत्रोंके पाठोंका अर्थ बदलना शुरू किया और उनका ऐसा अर्थ दुनियाके सामने रखा जो कि जैनधर्मसे खिलाफ और अन्य धर्मों के सिद्धान्तोंसे मिलता जुलता था । इस प्रकार सैकड़ों वर्षोंके परिवर्तनसे
आते आते इतना विकार पाया कि जैनधर्मके असली स्वरूप और बादके स्वरूपमें कोसोंका अन्तर पड़ गया। अनेक महामना धर्मधुरन्धरोंने जैनधर्मके सत्य स्वरूपके खोजमें अपना हाथ लगाया और
आंशिक सफलता भी प्राप्त की । संत भीखणजी भी इन्हीं महान पुरुषों मेंसे एक थे । वे सबसे बादमें हुए परन्तु सबसे अधिक परिश्रम इन्होंने किया और पूर्ण सफलता भी इन्हींको मिली । इनका मत कोई नया धर्म नहीं है बल्कि शास्त्रोक्त जैनधर्मसे पूर्ण समन्वय या एकरूपता रखता है। इस प्रकार जैनधर्मके सनातन स्वरूपसे उसका पार्थक्य न होते हुए भी जैनधर्मके जो अन्य सम्प्रदाय हैं और जिनका अस्तित्व इससे प्राचीन है उनके साथ कई खास बातोंमें इसका मतभेद हो जाता Shree Sydharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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( २६ )
| हम थोड़े में इन मतभेदोंका दिग्दर्शन करा देना उचित समझते हैं। १ - तीर्थंकर भगवान् केवल निरवद्य करणी की श्राज्ञा देते हैं, सावध करणी की आज्ञा नहीं देते। निरवद्य करणी से जीव को मोक्ष पद प्राप्त होता है परन्तु सावद्य करणी से नये कर्म का बंध होकर जीवकी दुर्गति होती है। जो कर्म रोकने और काटने के कार्य हैं भगवान उन्हें करने की आज्ञा देते हैं। पर इसके अतिरिक्त दूसरे सारे कार्य सावय हैं, पापास्रव के कारण हैं अतः प्रभु आज्ञा नहीं देते । तेरापंथी सम्प्रदाय की यह मान्यता है कि निरवद्य कार्य याने भगवानका अनुमोदित कार्य कोई भी मतावलम्वी क्यों न करे वह आज्ञा में है। जैनके दूसरे सम्प्रदायवाले जैनेतरकी शुद्ध करणीको भी आज्ञा बाहिर समझते हैं । *
२– तेरापन्थी सम्प्रदाय के अनुसार जहाँ तीर्थकर भगवान् की आज्ञा है वहाँ धर्म और जहाँ प्रभु ( बीतराग देव ) की आज्ञा नहीं वहाँ धर्म नहीं है ।
जैसे कि श्राहारादिको समानधर्मी साधुओं में वितरण कर खाना आज्ञामें है, अतः साधुके लिये धर्म है । परन्तु किसी साधुको किसी दुष्टके आक्रमण करने पर उस साधु की पक्ष लेकर किसी भी साधुके लिये उस अत्याचारी को दंड देना, ताड़ना आदि बल प्रकाश करना आज्ञाके बाहिर है अर्थात् मना है । साधु एक दूसरे की व्यावच करे इसमें प्रभु आज्ञा से धर्म है परन्तु एक साधुके लिये एक श्रावक की
* दोय करणी संसार में सावय निरवद्य जाण । निर्वद्य में जिण आगन्यां, विण स्युं पामै पद निर्वाण | सावध करणी संसार नी, तिण में जिन श्रागन्यां नहीं होय । कर्म बंधे छे तेह थी, धर्म म जाएयो कोय ॥ कर्म रूके तिण करणी में आगन्यां, कर्म कटै तिए करणी में जाए रे ।
यां दोयां करणी विना नवि आगन्यां, वे सगली सावद्य पिछाण रे ॥
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( २७ )
व्यावच करना करवाना व अनुमोदना पाप मूलक है । कारण यह प्रभुकी आज्ञा के सर्वथा खिलाफ है |+
(३) प्रभुने जहां मौन रखा है वहां पाप-केवल पाप ही हैधर्म और पाप मिले हुए नहीं हैं। जहाँ प्रभुने हाँ और ना दोनोंमें पाप समझा वहीं उन्हें मौन धारण करना पड़ा है । उदाहरणस्वरूप कुआँ खुदाने में लगे हुए किसी मनुष्यने भगवान् से प्रश्न किया कि प्रभु ! कुआं खुदानेमें मुझे पाप होगा या पुण्य । प्रभुने इस प्रश्नका कोई प्रत्युत्तर न दिया बल्कि मौन धारण किया। यहां कुआँ खुदानेसे जीव हिंसा हो रही थी इसलिये यदि भगवान् यह कहते कि यह पुण्य का कार्य है तो झूठ बोलनेसे मोहनीय कर्मका बंध करते और यदि सत्य बोलते हुए यह कह देते कि इसमें पुण्य नहीं पाप है तो शायद कुआँ खोदना बन्द हो जानेसे जीवोंको पानीका लाभ न होता । इस प्रकार जीवोंके सुखमें अन्तराय पहुँचानेसे उन्हें अन्तराय कर्मका बंध होता । एक ओर मोहनीय कर्मका बंध और दूसरी ओर अन्तराय कर्म का बंध था इसलिये भगवानने प्रश्नका कोई उत्तर न दिया । कुछ सम्प्रदाय वाले मौनको सम्मतिका लक्षण भलेही ठहराते हों परन्तु
+ जे जे कारज जिन आज्ञा सहित छे, ते उपयोग सहित करे कोय । से कारज करतां घात होवें जीवांरी, तिणरो साधने पाप न होय रे ।। नदी मांही बहती साध्वी ने साधु राखें हाथ तिण मांही पिग है जिए जी री आज्ञा, तिणमें कुरण पाप इर्यासमिति चालतां साधु स्यु, कदा जीव तणी होवे ते जीव मुत्र से पाप साधु ने, लागे नहीं अंश मात रे । जो इर्या समिति बिना साधु चाले, कदा जीव मरै नहीं कोय । तोपि साधु ने हिन्सा छउँ कायरी लागें, कर्म तो बंध होयरे ॥ जीव मुमा तिहाँ पाप न लाग्यो, न मुद्रा तिहाँ लागो पाप ।
घात ।
जिण आज्ञा संभालो जिण भाज्ञा जोवो, जिण आज्ञामें पाप म थापोरे |
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सम्भावै ।
बतावैरे ।
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( २८ ) गहन विचार करनेसे ऐसी मान्यता भ्रान्त मालूम हो जायगी। नीतिविदोंने “मौनं सम्मति लक्षणम्" अवश्य बताया है। किन्तु “नीति"
और "धर्म" के क्षेत्रमें बहुत अन्तर है । नीतिकी मान्यताके अनुसार भी हम मौन भावको सदा सर्वदाके लिये सम्मतिका लक्षण प्रमाण नहीं कर सकते, और जैन-धर्मके अनुसार तो "मौन" का अर्थ सम्मति किसी प्रकारसे और किसी अंशमें नहीं हो सकता।
(४) ब्रतमें धर्म, अव्रतमें अधर्म है। जैन धर्म, साधकोंके दो भेद करता है। एक अणुव्रतियोंका जो गृहस्थ जीवनमें रह कर आत्म.. कल्याण साधन करनेका प्रयास करते हैं और दूसरा महाव्रतियोंका जो सर्व व्रती साधु होते हैं। इन दोनों प्रकारके साधकोंका आदर्श तो समान ही रहता है परन्तु अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य अपरिग्रह इन प्रात्मकल्याण के साधनोंको दोनों समान रूपसे नहीं अपना सकते। श्रावक गृहस्थाश्रमी है अतः अपनी गाईस्थिक आवश्यकताओंके कारण इन व्रतोंको आंशिक रूपमें ही स्वीकार कर सकता है अर्थात् वह मर्यादित धर्मका पालन करता है । परन्तु साधु सम्पूर्ण रूपसे इन ब्रतों को अङ्गीकार करते हैं । कहने का तात्पर्य यह है कि गृहस्थ अपने लिये छूट-श्रागार रख लेता है परन्तु साधु कोई छूट प्रागार नहीं रखते हैं। श्रावक आगार-धर्मी साधु अनागार-धर्मी होते हैं। श्रावक जितने अंशमें इन ब्रतोंको अपनाता है उतने अंशमें वह धर्म पक्षका सेवन करता है और जितनी छूटें रख लेता है उतने अंशमें अधर्म पक्षका । साधु सम्पूर्ण अंशमें इन व्रतोंको अपनाते हैं अतः वे केवल धर्म पक्षका ही सेवन करते हैं। जैन श्वेताम्बर तेरापन्थी मतके अनुसार श्रावक जितना आगार रखता है उसके लिये उसे पाप ही होता है। उदाहरण स्वरूप यदि कोई श्रावक यह प्रतिज्ञा करे कि-"मैं अपनी मील घण्टा ही चलाऊँगा अधिक नहीं" तो उसे ८ घण्टा मील चलानेका पाप तो अवश्य ही लगेगा एवं बाकी १६ घण्टेके लिये, जब कि वह पासानीसे मील चला सकता था, त्याग करता है, वह धर्मका कारण
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( २ ) है। इसी प्रकार यदि कोई मद्यपायी, साधु समागमके कारण, मद्यपानके दुखद परिणामोंको समझ, त्याग.भावनासे, किन्तु अभ्यासके वशीभूत होने के कारण सम्पूर्णतया मद्यपान त्याग करनेमें असमर्थ हो, यह प्रतिज्ञा करता है कि "मैं पाजसे २ प्यालेसे अधिक मदिरा पानका त्याग करता हूँ" तो क्या उसे इस प्रतिज्ञाके कारण २ प्याला मदिरा पानका दोष न लगेगा ? उस मद्यपायीने २ प्यालेसे अधिक मद्यपानका त्याग किया यह उसका व्रत है, आज्ञामें है, सराहनीय है न की २ प्यालोंकी छूट-श्रागार जो कि उसने अपनी कमजोरीके कारण रखा है । वह तो पाप ही है। त्यागका वास्तविक मर्म न समझने वाले इसे ठीक तौर पर नहीं समझते एवं श्रागारको भी धर्म मान बैठते हैं। इस प्रकार श्रावकका खाना पीना, चलना फिरना आदि सारी बातें अव्रतमें हैं । अतः इन सबके कारण उसके निरन्तर कर्म बन्धते रहते हैं परस्तु साधु अनागारी होनेसे उन्हें किसी प्रकारके पाप नहीं लगते । जो न तो सावुकी तरह सर्वव्रती है और न श्रावककी तरह अणुव्रती, वह सम्पूर्ण असंयती है, उसके लिये पापका रास्ता चारों तरफ खुला है। जो जितने अंशमें ब्रतोंको अङ्गीकार करता है वह उतने ही अंशोंमें पाप कर्मसे बचा रहता है-उसके नये काँका संचार नहीं होता। जो जितनी अधिक छूटें रखता है-अपनी इच्छाओंको जितना कम संयममें रखता-वह उतना ही अधिक पापोपार्जन करता है। कुछ जैननामधारी कहते हैं कि श्रावककी छूटोंके लिये भी उसे धर्म ही होता है क्योंकि गाहस्थिक जीवन के निर्वाह के लिये उन छूटोंकी नितान्त
आवश्यकता रहती है, किन्तु तेरापन्थी तो इसे मिथ्या बतलाते हैं। भगवानने साधुओंको जो छूटें दी हैं ये छूटें उनके संयमी जीवनका अङ्ग हैं इसलिये धर्म हैं। श्रावककी छूटें उसकी अपनी बनाई छूटें हैंउसके गार्हस्थिक जीवनकी अङ्ग हैं, उसके असंयम वृद्धि एवं पोषणके कारण हैं अतः पाप हैं। एककी छूटे धर्मके यथोचित पालनके लिये पावश्यक हैं, दूसरेकी छूटें गृहस्थीमें अधिकाधिक मुग्ध एवं लिप्त होनेके
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( ३० ) लिये ही हैं इसलिए दोनोंमें आकाश पातालका अन्तर है। साधुको दी हुई छूटें धर्मकी पोषक हैं-उनमें संयम-रक्षाका गम्मीर हेतु रहा हुत्रा है, परन्तु श्रावककी रखी हुई छूटें संयम धर्मकी बाधक और इसलिए
आत्म घातक हैं। जो जो क्रियाएँ संयमी जीवनकी बाधक हैं उनका भगवानने पूर्ण निषेध किया है और इसलिये श्रावककी छूटोंमें पाप ही ठहरता है। अन्य सम्प्रदाय वालोंसे तेरापंथियोंका मत-पार्थक्य इस विषयमें भी है, पर न्याय दृष्टिसे देखनेसे सत्यासत्यका निर्णय होगा। (५)जीव जीवे ते दया नहीं, मरे ते हो हिंसा मत जाण ।
मारणवालाने हिंसा कही, नहीं मारे ते दया गुणखान हो । कोई जीव जीवित रहता है यह दया या अनुकम्पा नहीं है। जीव अपने अधिकार या स्वोपार्जित कर्मके बल पर ही जीवित रहता है। जब तक आयु समाप्त नहीं होती किमीकी ताकत नहीं कि किसी जीवको मार दे या उसका जीना बंद कर दे । इसलिये कोई जीव जीवित रहता है तो उसमें किसीका अहसान नहीं। इसी प्रकार किसी जीवका मरजाना ही हिंसा नहीं है क्योंकि जीव अपने २ कर्मोदयसे मरते ही रहते हैं । जीवन और मरण तो इस संसार की नित्य वस्तुएँ हैं।
हिंसाका पाप तभी लगता है जब मनुष्य खुद किसी जीवका घात करता है या घात करनेका निमित्त या सहायक कारण होता है। अपनेसे मारे या घात किये गये जीवोंके लिये ही कोई उत्तरदायो ठहर सकता है। किसी जीवको सर्वथा सर्व प्रकारसे न मारनेका त्याग करना ही सबसे बड़ी दया है। अहिंसाको ही भगवानने पूरी दया बतलाया है। जैसे ही मनुष्य अहिंसाका व्रत अङ्गीकार करता है और उसका पूर्ण पालन करने लगता है वैसे ही वह संसारके समस्त जीवोंके लिए अभय दाता हो जाता है । जीवोंको उससे किसी प्रकारके भयकी
आशंका नहीं रह जाती । मन, वाणी और शरीरमें अहिंसाका पालन करना, दूसरोंसे हिंसा न कराना और हिंसा करने वालेका अनुमोदन,
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(३१ ) सहयोग न करना-यही सबसे बड़ी दया है। अभयदान सबसे बड़ी दया है। इससे बढ़कर दयाकी कल्पना नहीं की जा सकती। सब जीव सुखके लिये लालायित हैं, दुःख सबको अप्रिय है, मृत्युसे सब कोई भय खाते हैं। इसलिए जब कोई नहीं मारनेकी प्रतिज्ञा करता है तो वह जीवोंके सबसे बड़े भयको दूर करता है । अपनी ओरसे कोई भयकी आशङ्का उनके लिए नहीं रहने देता। इससे बढ़कर दयाका श्रादर्श और क्या होगा?
जैन मतके अनुसार सब जीव समान हैं। इनकी दृष्टिमें एकेन्द्रियसे लेकर पंचेन्द्रिय तकके जीवोंमें कोई फरक नहीं। एकके सुखके लिये दूसरे को दुःख पहुँचाना इनकी दृष्टिमें अनुचित और पाप जनक है। सुखेच्छा की दृष्टिसे सभी जीव सदृश हैं । इसलिए पंचेन्द्रियके सुखके लिये एकेन्द्रियकी घात करना, राग द्वेषके अतिरिक्त और कुछ नहीं। इसीलिए साधु सचित्त वस्तुओंके दानका उपदेश नहीं दे सकते और न अनुमोदन ही कर सकते । जहां एक जीव दूसरे जीव पर झपट रहा हो यहाँ साधु निर्विकार चित्तसे तटस्थ रहते हैं । वे एकको डराकर दूसरेको बचानेकी चेष्टा नहीं कर सकते । बिल्ली चूहे पर झपट रही हो तो साधू बिल्लीको डरा कर भगानेकी चेष्टा नहीं करेंगे न वे यह चाहेंगे कि चहा ही मारा जाय । ऐसे अवसर पर वह ध्यानस्थ होकर निर्विफार चित्तसे बैठे रहेंगे।
न्यायकी दृष्टिसे भी ऐसा ही करना उचित है । एक जीवको जबरवस्ती से भूखा रखकर, दूसरे जीवको बचाना न्यायकी दृष्टि से मसंगत है। यह तो ठीक वैसा ही है जैसा कि एकको चपत लगामा भार दूसरे का उपद्रव दूर करना। ऐसे राग द्वेषके कार्यों से साधु कोसों दूर रहते हैं। जहां दो जीवोंमें आपसमें कलह हो रहा हो वहां साधु यदि उपदेश द्वारा कुछ कार्य कर सकते हैं तो ही करते हैं। धर्म उपदेशका है, न की जबरदस्तीका। जहां उपदेश नहीं दिया जा सकता या उसका मसर होना असम्भव मालूम होता है वहां साध राग शेष रहित हो
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( ३२ ) मौन धारण करते हैं या वहांसे उठकर चले जाते हैं। जैन धर्म नहीं चाहता कि किसीके दुर्गुणोंको भी जोर जबरदस्तीसे हटाया जाय। स्वामी भीषगाजने ठीक ही कहा है:__ "मूला गाजर ने काचो पानी,
कोई जोरी दावे ले खोसी रे। जे कोई वस्तु छुड़ावे बिन मन,
इण विधि धर्म न होसी रे ॥ भोगी ना कोई भोगज रूंध,
बले पाडै अन्तरायो रे । महा मोहनी कर्म जु बाँध,
दशाश्रुतखन्धमें बतायो रे ।" हरी वनस्पति और सचित्त पानी पीनेमें एकेन्द्रिय नीवकी हत्या होती है अतः पाप है। परन्तु अगर कोई हरी वनस्पति और सचित पानी पीता हो तो उसे जबरदस्ती छीन लेना जैन दृष्टिसे धर्म नहीं है। इसी प्रकार अहिंसाका सिद्धान्त है-अहिंसा माने यह नहीं कि हिंसाप्रेमियोंकी हिंसा को हिंसा द्वारा अर्थात् बलपूर्वक रोका जाय । इस प्रकारकी जबरदस्ती या बलप्रयोगमें तो हृदयका परिवर्तन नहीं है । बिना मन कोई काम करा लेनेमें धर्म नहीं है। वैसे तो. यह संसार ही हिंसामय है, जगह जगह हिंसाएँ हो रही हैं। परन्तु उन्हें रोकना असं. भव है। मनुष्यको स्वयं मन वचन और कायासे अहिंसक होना चाहिए यदि वह स्वयं अहिंसक हैं तो उसके सामने हिंसाएँ होती रहें उसका पाप उसे नहीं है । हिंसा करने वाले, कराने वाले व अनुमोदन पालेको ही हिंसाका पाप होता है न कि देखने वालेको। यदि देखने वालको ही हिंसा हो तो अनन्त झान, अनन्त दर्शन, अनन्त चारित्र
और अनन्त बल सम्पन्न अरिहन्त भगवान् एवं त्रिकालदर्शी केवली कैसे अहिंसक बन सकते। अतः साधु हिंसा के कार्यों को देख कर
चलचित्त नहीं होते, परन्तु विवेक पूर्वक तटस्थता धारण किये रहते Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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( ३ ) हैं। बल का प्रयोग कर जीव घात को रोकना उनके लिये पाप हो जाता है। जैन शास्त्रों में तो यहां तक कहा है कि किसी भोगी को भी भोगों से जबरदस्ती बञ्चित करना महा बलवान मोहनी कर्म को बांधना है। इसी न्यायसे साधु जीव मात्र का श्रापसी कलह, मार काट भादि में बल प्रयोग कर वाधा नहीं देते, उपदेश द्वारा समझा कर उसे निवृत्त करना ही उनका धर्म व कर्तव्य है। न्यायकी दृष्टिसे भी ऐसा ही उचित प्रतीत होगा। अनुचित पक्षपात या राग-द्वेष समस्त कर्मों का मूल है। कुछ लोग इस बातका रहस्य न समझ अन्य धर्मियोंके देखादेख दयाका स्वरूप ही दूसरा बतलाते हैं। उनकी यह भूल, शासकी दृष्टिसे स्पष्ट प्रतीयमान है।
इस प्रकार बल या जवरदस्तीसे काम लेनेसे जहाँ रक्षकको कोई नाम नहीं होता उल्टा अन्तराय उपस्थित करनेसे पापकर्म लगता है, यहां आततायीका भी कोई सुधार नहीं होता। बिना मन धर्म पालन करवा लेनेसे ही पाप दूर नहीं होता।
(६) सुपात्र दानसे धर्म होता है । कुपात्र दानमें संसार कीर्ति भले हो हो धर्म पुण्य नहीं है । जैन शास्त्रोंमें दश दानोंका वर्णन पाया है। परन्तु उन सभीमें धर्म न समझना चाहिये । प्रह उपग्रहादिको शान्तिके लिए जो धन धान्यादि दिया जाता है वह भी दान है और विवाहशादीके अवसरपर दहेज, मुकलावादि दिया जाता है वह भी दान है, परन्तु इन दोनोंमें कोई धर्म नहीं है। देने मात्रही में धर्म समझना भूल है। दानसे धर्म लाम करना हो तो विवेकका सहारा लेना चाहिए। दान सत्पात्रके लिए ही है । कुपात्र को दान देना धर्मके स्थानमें पापोपार्जन करना है। जो जीव सर्वथा हिंसा नहीं करता, सर्वथा झूठ नहीं बोलता, सर्वथा चोरी नहीं करता, संपूर्ण शीलकी रक्षा करता है. और बिलकुल परिप्रह नहीं रखता वही सुपात्र है । ऐसे सुपात्रको दान देना सुक्षेत्रमें बीज डालनेकी तरह है कि जिसका फल बड़ा अच्छा होता ।
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( ३४ ) है। जिनमें ये गुण नहीं वे कदापि सुपात्र नहीं। उन्हें दान देना धर्मका कारण नहीं हो सकता। सांसारिक कर्त्तव्य भलेहीहो पर सांसारिक लाभालाभसे धार्मिक लाभालाभ विभिन्न है।
दान देने में दयाका उल्लंघन न हो इसका भी पूरा ख्याल रखना चाहिये । जिस दानसे दयाका उल्लंघन होता हो वह दान सच्चा दान नहीं है। स्व० दार्शनिक कवि श्रीमद् राजचन्द्रने एक जगह ठीक ही कहा है:
सत्य, शीलने, सघलां दान, दया होइ ने रह्यां प्रमाण । दया नहीं तो ए नहीं एक, बिना सूर्य किरण नहीं देख ॥
अतः दयाकी रक्षा करते हुए ही दान देना चाहिए। जिस दानमें जीवोंकी हिंसा रही हुई हो उस दानको न करना चाहिए। इसलिए सजीव धान्यादिका दान करना हिंसाका कार्य होनेसे पाप मूलक है । साधु ऐसे दानको स्वयं ग्रहण नहीं करते और न ऐसे दानकी प्रशंसा या सराहना करते हैं। भगवानने ऐसे सावद्य दानकी जगह जगह निन्दा की है और इसे आत्मघातक बतलाया है।
जिस दानसे आत्मिक कल्याण या धर्म, पुण्य होना बतलाया गया है वह दान दूसरा ही है। सच्चे जैन धर्मके रहस्योंको बतला कर किसीको सन्मार्ग पर लाना-उसे सम्यक्तीत-सच्चे दर्शनको मानने वाला, तथा सत् चारित्री बनाना यही धर्म-दान है। सच्चे साधु मुनिराजको उनके तपस्वी जीवनके योग्य शुद्ध कल्प वस्तुओंका दान देना यह भी शुद्ध दान है। ऐसे दानसे नवीन कर्मोंका आना रुकता है, कर्मों की निर्जरा होनेसे धर्म पुण्यका संचार होता है। ऐसा दान सम्पूर्ण निर्वद्य होता है। भगवान खुद ऐसे दानकी श्राज्ञा करते हैं, इसके अतिरिक्त जो साक्द्य दान हैं जिनमें असंयति जीवोंका पोषण होता है या जिनमें असंयति जीवोंकी घात होती है या दूसरे पाप बढ़ते हैं वैसे दान धार्मिक दृष्टिसे सर्वदा प्रकरणीय हैं सांसारिक दृष्टिसे कोई करे तो वह दूसरी बात है।
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। ३५ ) तेरापंथी साधुत्रोंकी तपस्याका दिग्दर्शन | तेरापंथी साधु बहुत उग्र तपस्याएँ करते हैं। श्री मुखांजी नामकी एक साध्वीने निरन्तर २६७ दिनोंका उपवास किया था। इस लम्बे उपवासमें उन्होंने उबाली छुई छाछके ऊपरके पानीके अतिरिक्त कोई आहार नहीं लिया। कई साधुओंने केवल जल पर ही १०८ दिन निकाले हैं। एक साध्वी प्राचार्याने २२ दिन बिना अन्न जलके निकाले थे । तेरापन्थी साधुओंका आचार, निष्ठा, संगठन व नियमानुवर्तिता तथा उनके तपस्या मय जीवनको जो देखते हैं, वे सब मुग्ध हो जाते हैं।
तेरापन्थी सम्प्रदायके साधु साध्वियोंमें बहुतसी महत्वपूर्ण तप. स्याएँ हुई हैं। यहां तो दृष्टान्त स्वरूप केवल थोड़ीसी ही तपस्याओंका वर्णन दिया जाता है । रात्रिमें जैन साधु साध्वियों कोई भी चीज नहीं 'खाते यह पहिले कह चुके हैं। उपवासका पारण वे सूर्योदयके बाद ही करते हैं। उपवास करते हुए दिनके समय गरमजल या छाछ के उपरका जल ही ले सकते हैं, और कुछ नहीं।
प्रथम दो आचार्यों के शासनकालमें छः महीने तककी निरन्तर तपस्या नहीं हुई थी। तृतीय श्राचार्य महाराज श्री रायचन्दजीके शासनकाल में पहले पहल छः महीनेका निरन्तर उपवास स्वामी पृथ्वीराजजी महाराजने किया। वे मारवाड़ रियासतके बाजोलिया प्रामके रहनेवाले थे। उनकी दीक्षा सं० १८६६ में महाराज श्री हेमराजजी के हाथसे हुई थी। वे विवाहित थे और स्त्रीको परित्याग कर उन्होंने दीक्षा ली थी। दीक्षाके बाद पहिले छः वर्षों में तो वे बीच बीचमें उपवास किया करते थे। परन्तु सं० १८७३ से प्रत्येक चातु. मासके समय उन्होंने बड़ी-बड़ी तपस्याएँ करनी शुरू की। उनकी तपस्याओं की सूची नीचे दी जाती है:
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। ३६ )
सम्बत्
चातुर्मास जगह
निरन्तर उपवास
सिरियारी गोगुन्दा पाली
देवगढ़
१८७३ १८७४ १८७५ १८७६ १८७७ १८७८ १८७६ १५८० १८९१
पुर
आमेट
पाली
पाली
७५,२१ "
१८९२
पाली
१०१ ॥ १८६ ,
१८५३
कांकरोली
अन्तिम १८६ दिनोंका उपवास सं० १८८३ के जेठ बदी में प्रारम्भ किया था। प्रथम दिनके उपवासमें ही उन्होंने प्राचार्य श्री रायचन्दजी महाराजके सामने छः महीनेका निरन्तर उपवास एक साथ प्रत्याख्यान कर लिया। दो अन्य साधुओंने भी ऐसे ही उपवास पचखे। इनमें एकका नाम श्री वर्तमानजी महाराज और दूसरेका नाम भी हीरालालजी महाराज था
इस लम्बे उपवासके समाप्त होने के एक महीने बाद ही स्वामी पृथ्वीराजजी महाराजका स्वर्गारोहण हो गया।
स्वामी पृथ्वीराजजीके समसामयिक साधु श्री शिवजी महाराज भी बड़े उग्र तपस्वी थे। वे बाफना वंशके श्रोसवाल थे। उनका जन्म मेवाड़के लव प्राममें हुआ था। उनके उपवासोंका विवरण निम्न • प्रकार है।
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उपवास दिन
संख्या | उपवास दिन
संख्या
४१४
ه
ه
م
ه
م
س
س
س
س
س
س
س
سم
इन तपस्वी साधुका देहावसान चैत सुदी ७, सं० १६११ में हुआ। एक सौ वर्ष पहिले किए हुए उपवासोंमें से ये कुछ नमूने हैं। हालके तपस्वियोंमें श्री चुन्नीलालजी महाराज, श्री रणजीतमलजी महाराज तथा भी आशारामजी महाराजके नाम प्रमुख तपस्वियोंमें से हैं। __स्वामी श्री चुन्नीलालजी महाराज सरदार सहर (बीकानेर) के थे। वे नाहटा वंशके पोसवाल थे। सं०. १९४० में उनकी दीक्षा हुई थी। सं० १९४४ से उन्होंने एकान्तर (एक दिनके बाद एक दिन) तपस्या करनी शुरू की। छः वर्षों तक यह एकान्तर तपस्या जारी रही। सं० १९५० से उन्होंने बेले २ तपस्य शुरू की। दो दिनकी तपस्याके पार पारणा करते और फिर दो दिन उपवास करते। इस प्रकार एक
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( ३६ )
मास के समय में दस दिन आहार लेते बाकी २० दिन दो दो दिनका निरन्तर उपवास करते । इस प्रकारकी तपस्या वे निरन्तर २३ वर्षों तक करते रहे अर्थात सं० १६७२ तक यह तपस्या क्रम जारी रहा । इसके बाद से उन्होंने तेले तेले तपस्या करना शुरू किया अर्थात तीन दिन लगातार उपवासके बाद एक दिन आहार करते | यह तपस्या उन्होंने ३|| वर्षों तक की । इन तपस्याओं के सिवा उन्होंने और भी तपस्याएँ की थीं । उनका विवरण निम्न प्रकार है :
1
उपवास दिन
संख्या उपवास दिन
४
५
६
U
&
૨૦૦
३६
३६
४४
२५
१
१
१०
११
१२
१३
१४
१५
१६
१७
१८
संख्या
१
२
१
१
स्वामी चुन्नीलालजीने इन तपस्याओं के अतिरिक्त 'लघु संघकी' तपस्या भी की। इस तपस्याकी चार श्रेणियाँ होती हैं। प्रत्येक श्रेणीके १८७ दिनों में १५४ दिन उपवास और ३३ दिन आहार ग्रहण के रहते हैं । प्रथम श्रेणी में पारणेके दिन तपस्वीने बिगह लिया था। दूसरी श्रेणी में विगह नहीं लिया, तीसरी श्रेणीमें पारणेके दिन उन्होंने लेपका प्रयोग नहीं किया ।
'लघु संघ' तपस्या बड़ी ही कठिन तपस्या है; इसमें उपवास से आरम्भ कर क्रमशः ६ दिनके निरन्तर उपवास करने तक पहुँच जाना पड़ता है । उपवास, बेले, तेले आदि प्रत्येकके बाद एक दिन पारण
करना पड़ता है । निरन्तर ६ दिनकी तपस्या कर चुकने पर तपस्वीको
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( ३६ ) तपस्या-क्रम बदलना पड़ता है और फिर उल्टे चलकर अन्तमें एक उपवास तक आकर तपस्याका अन्त करना होता है।
जो इस तपस्याको चार बार कर चुकता है वह बहुत ही उम्र तपस्वी समझा जाता है। तीन श्रेणियोंका वर्णन ऊपर आ चुका है। चौथी श्रेणीमें पारणके दिन सिर्फ उड़दके बाकले और जल लेना पड़ता है। स्वामी चुन्नीलालजीने तीन श्रेणियों तक इस तपस्याको पूरा कर लिया, परन्तु चौथी श्रेणीको पूरा करनेके पहिले ही उनका देहान्त हो गया । तेरापंथियोंके एक अन्य साधु हुलासमलजी महाराज ने चतुर्थ, प्रथम तथा तृतीय श्रेणी तक इस तपस्याको पूरा किया परन्तु द्वितीय श्रेणीका तप प्रारम्भ न कर सके। ३५ वर्षके साधु जीवनमें साधु चुन्नीलालजी के ८००० दिन उपवास के अर्थात् लगभग २२ वर्ष तपस्याके रहे।
अब स्वामी रणजीतमलजी तथा आशारामजीको तपस्याओंका वर्णन देकर इस प्रकरणको समाप्त करेंगे। __स्वामी रणजीतमलजी का जन्म सं० १६१८ में हुआ था। वे मेवाड़के पुर प्राममें जन्मे थे और चौथमलजी बनौलियाके पुत्र थे। चौथमलजीने प्राचार्य श्री मघराजजी स्वामीके हाथसे दीक्षा ली थी। खुद चौथमलजी भी उग्र तपस्वी थे। उन्होंने १९५५ में छः महीनों तककी तपस्या की। उनका स्वर्गारोहण सं० १६५६ में हुआ। साधु रणजीतमल जी भी योग्य तपस्वी निकले। सं० १६७४ से प्रारम्भ कर उन्होंने कभी लगातार दो दिन आहार नहीं लिया। वे बड़े ही विनय. शील तपस्वी थे। उनका अन्तिम उपवास निरन्तर ६० दिनका था। आषाढ़ सुदी २ सं० १९८९ के दिन वर्तमान प्राचार्य श्री श्री कालु. रामजी महाराज जब सरदार शहर पहुँचे उस समय रणजीतमलजीने पारण किया था, एवं उसी पारणेके दिन ही प्राचार्य महाराज से संथारा करनेकी भाशा देने की विनती की। परन्तु पूज्यजी महाराजने उन्हें संथारेकी पाशा न दी। निराश न होकर स्वामी रणजीतमलजी
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तपस्या करते रहे, और जब कभी मौका आया संथारेके लिये अनुमति माँगते रहे । भाद्र सुदी २ को उनकी ६० दिनकी तपस्या समाप्त हुई। इन ६० दिनोंमें उन्होंने २१ दिन तक तो जल भी ग्रहण न किया था। भाद्र सुदी २ को लगभग ७॥ बजे सुबह उन्हें संथारेकी आज्ञा दी गयी
और ॥ घंटेके बाद उनकी आत्मा इस नश्वर शरीरको छोड़कर स्वर्ग सिधार गयी।
उनके उपवासोंका विवरण इस प्रकार है:- .
उपवासके दिन
संख्या उपवासके दिन
संख्या
२६७५
2
2 " 22
.
~
१०१ ( गोगुंदामें) १८२ ( राजनगरमें)
१
साधु आशारामजीका जन्मस्थान मारवाड़ राज्यका बालोतरा माम था । वे ओसवाल जातिके थे और उनके पिताका नाम सूरजमल जी भंडारी था । इनका विवाह हो चुका था, परन्तु एक बलवान प्रात्मा के लिये सांसारिक बन्धन तोड़ना कोई कठिन काम नहीं। आपकी दीक्षा सं० १६७० की श्रावण सुदी ७ के दिन हुई थी। आपकी तपस्याका विवरण इस प्रकार है।
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उपवास दिन
X
३
६
U
ام
१०
( ४१ )
संख्या
१३६७
६३०
१११
१४
२५
१
१
उपवास दिन
११
१२
१३
१५
२५
३०
३१
३५
४१
संख्या
१
१
१
१
१
इसके अतिरिक्त उन्होंने ६ वर्षों तक एकान्तरकी तपस्या की और ६ वर्षों तक बेले २ की तपस्या । ७३ दिनकी लगातार तपस्या । ७३ दिनकी लगातार तपस्या कर चुकने पर सं० १६६० मिती चैत वदी ७ के दिन चाडवासमें आपका स्वर्गारोहण हो गया। तपस्याके ५६ में दिनसे उन्होंने जलको छोड़ और सब चीजोंके खाने पीने का त्याग कर दिया था । अन्तिम ७ दिनों में तो उन्होंने जल तकका भी त्याग कर दिया । गृहस्थाश्रम में भी उन्होंने ३० दिनकी तपस्या तथा अन्य फुटकर तपस्याएं की थीं ।
ऊपर में जैन श्वेताम्बर तेरापन्थी सम्प्रदायके साधुओं की तपस्याका सामान्य मात्र वर्णन दिया गया है ।
यहां यह भी बतला देना आवश्यक होगा कि इन तपस्याओं का उद्देश्य एक मात्र श्रात्मिक कल्याण ही है। पाठक ! सामाजिक, राजनैतिक तथा ऐसे ही अन्य उद्देश्योंसे किए गये उपवासोंसे अवश्य परि चित होंगे, परन्तु जैनेतर जनताको शायद यह मालूम न होगा कि
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( ४२ )
जैनियोंके उपवास इनसे कहीं ऊँचे उद्देश्य के लिए किये जाते हैं । आत्म कल्याण और कर्मों से छुटकारा पानेके लिये ही उनके उपवास हैं । जीवात्माका कर्मों के साथ जो संयोग रहा हुआ है उस संयोगमें से आत्म-तत्वको उसके असली रूप में अलग करनेका काम तपस्या ही करती है । जैनी लोग सांसारिक, सामाजिक या राजनैतिक उद्देश्यको सफल करनेके लिए उपवास नहीं करते। जैन शास्त्रों के अनुसार ऐसे उपवास आत्माको आत्मिक कल्याण की ओर बढ़नेमें, हानिके अतिरिक्त कोई लाभ नहीं पहुँचाते। ऐसी तपस्याओं में जो कष्ट उठाना पड़ता है यद्यपि वह सम्पूर्ण व्यर्थ नहीं जाता तथापि उससे जितना लाभ मिलना चाहिए उसका सहस्रांश भी नहीं मिलता। वह तो हीरे को कौड़ियों के मोल बेचना है । पाठको ! ऐसी तपस्याएं केवल साधु ही नहीं करते परन्तु इस सम्प्रदाय के श्रावक और श्राविकाओंमें भी प्रचलित हैं । चातुर्मासमें जहां जहां तेरापन्थी साधु साध्वियां रहती हैं व श्रावक श्राविकाओं में बड़े उमंग एवं आनन्दसे कठोर व दुःसाध्य तपस्या होती है ।
तेरापन्थी साधुओंकी नियमानुवर्तिता
I
तेरापन्थी संप्रदाय में नियमानुवर्तिता व संगठन पर पूर्ण ध्यान दिया जाता है । समस्त साधुसाध्वियों को निर्दिष्ट नियमोंका सम्यकू पालन करना पड़ता है । शिथिलाचारको प्रश्रय नहीं दिया जाता । साधुका उद्देश्य आत्मकल्याण है । वे अपनी संयममय जीवनयात्राके निर्वाहार्थ सर्वथा शास्त्रोक्त रीति से चलते हैं। तेरापन्थी सम्प्रदाय, साधुसमाजको उनके गुणों के कारण ही पूजनीय एवं वन्दनीय समझता है । अतः उनके गुणों में कोई फरक न पड़े इसलिये साधु व श्रावक समाज सर्व प्रकार से साधु समाज के प्रत्येक कार्य-कलाप पर तीक्ष्ण दृष्टि रखता है। जिनके चरणों पर श्रावकों का मस्तक स्वतः भक्ति भावसे नत होगा
उनका आदर्श, उनका चरित्र, उनका आचार उस उच्च पदके योग्य
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। ४३ ) बना रहे यही भावना बलवती रहती है। इनके ऐसे ही कुछ नियमोंका परिचय नीचे दिया जाता है।
(१) साधु, साध्वी अपने दैनिक कार्यके लिये, साधु साध्वीके अतिरिक्त किसी भी श्रावक या अन्य जनकी सहायता नहीं लेते। तेरापन्थी साधु पैदल तथा नग्न पैर चलते हैं, कोई यान वाहनका उपयोग नहीं करते। अपना बोझ भार भी स्वयं ही ले जाते हैं । स्वयं पैसा देकर या दूसरोंसे दिलाकर रेल, मोटर आदि यानवाहनका सहारा लेना परिग्रहत्याग व्रत एवं अहिंसा व्रतका भङ्ग करना हैईर्या समितिका बाधक है । इस तरह नाना प्रकारके दोष इस यानवाहनको उपयोगमें लानेसे होते हैं। तीर्थकर देवने ऐसा करनेकी आज्ञा नहीं दी है।
(२) तेरापन्थी साधु साध्वी किसी भी गृहस्थसे पत्र व्यवहार नहीं करते। डाक, तार, दूत या आदमी मारफत कोई पत्र किसीको नहीं भेजते । डाक, तार, हवाई जहाज अथवा अन्य साधनों द्वारा पत्रादि देना, व्यय एवं हिंसा जनक है।
(३) तेरापन्थी साधु किसी एक जगह साधारणतया एक माससे अधिक नहीं रहते और वर्षा ऋतुमें (चातुर्मासमें ) चार मास (श्रावणसे कार्तिक पूर्णिमा ) तक एक जगह ठहरते हैं। जहां एक मास रहना होता है वहाँ फिर दो मासके बाद ही पा सकते है, पहिले नहीं। जहां एक चातुर्मास रह चुके हैं. वहां दो चातुर्मासके अनन्तर ही चातुर्मासमें रह सकते हैं। किन्तु प्रामानुग्राम विचरते हुए ऐसे क्षेत्रोंमें एक रात रहनेकी शास्त्रोंकी आज्ञा है और वैसा ही तेरापन्थी साधु करते हैं।
(४) तेरापन्थी साधु अपने पुस्तकादि उपकरण जहां जाते हैं वहां स्वयं साथ ले जाते हैं, दूसरे गृहस्थके सुपुर्द नहीं छोड़ते । शास्त्रानुसार प्रत्येक जैन साधु को अपने उपकरण, वस्त्र, पात्र, कंबल पुस्तकादिकी प्रतिदिन देखभाल करनी चाहिये जिससे यह मालूम हो जाय कि उन Shree Sudhármaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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( ४४ )
उपकरणों से कोई जीवजन्तुकी विराधना न हुई हो । यदि साधु साध्वी किसी भण्डार या गोदाममें पुस्तकादि रखते रहें तो दैनिक पडिलेहना ( निरीक्षण ) नहीं हो सकती एवं यह शिथिलता शास्त्र मर्यादाका उल्लंघन करना है।
(५) साधुके लिये परिग्रह रखना मना है। जैन मतानुसार काच भी परिग्रह है । इसलिए तेरापन्थी साधु चश्मा, ऐनक, ( Spectacles) नहीं रखते, अन्यान्य धातु निर्मित वस्तुयोंकी तो बात ही दूर रही । साधुके लिये शास्त्र में वस्त्र विषयमें भी विधि नियम है । साधु सफेद aant ही यथा-परिमाण व्यवहार करते हैं । निर्दिष्ट मूल्य से अधिक मूल्यके वस्त्रादिका दान ग्रहण नहीं करते । अपने लिये कोई खाद्य एवं पानीय वस्तु, वस्त्र, पुस्तक, कागज तैयार नहीं कराते, मोल नहीं स्वरीदाते या अपने यहां लाकर दिया हुआ भी पदार्थ नहीं लेते।
(६) तेरापन्थी साधु अपने शिरके केश तथा दाढ़ी मूछें उस्तुरे या कैंची से नहीं उतराते | उन्हें साल में दो बार केशोंका लोच करना पड़ता है । लोचका परीषह कितना कठोर हैं यह पाठक अनुमान से ही समझ सकते हैं।
(७) तेरापन्थी साधु जूती, मोजे, स्लिपर, पादुका आदि कुछ नहीं पहिनते । कड़ी गरमी में भी उत्तप्त बालू या पहाड़ी जमीन पर और भयानक शीतके समय ठंडी जमीन पर नंगे पैर ही वे विचरण करते हैं।
(८) तेरापन्थी साधु दातव्य औषधालयसे औषध नहीं लाते । कोई श्रद्धालु वैद्य या डाक्टर अपनी दवाइयों में से कोई दवा स्वेच्छा से दान करे तो साधु ले सकते हैं। आवश्यकता होनेसे किसी डाक्टरसे अखादि मांगकर यदि सम्भव हो तो साधु द्वारा ही अस्त्रोपचार कराते हैं। किसी डाक्टर के द्वारा या अस्पताल में जाकर दूसरेसे अस्त्रोपचार नहीं कराते ।
(६) अहिंसामय जैनधर्मके उपासक तेरापंथी साधु बिजलीका
पंखा या हाथ पंखा, बिजलीकी रोशनी, लालटेन की रोशनी या किसी
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(४५) अन्य प्रकारकी प्राकृतिक रोशनी या हवाको व्यवहारमें नहीं लाते । सर्दीके समय न तो अग्नि या सिगड़ी घरमें रखते और न अग्नि ताप ही लेते हैं । नदी, कुत्रा, तालावआदिका जल सचित्त सजीव होनेके कारण साधु नहीं ले सकते। हिंसा मूलक कोई भी कार्य करना, कराना व अनुमोदन करना बिलकुल मना है।
(१०) किसी भी सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, सांसारिक या कानूनी व्यापारमें साधु भाग नहीं लेते। नैतिक एवं आत्मिक उन्नति. जनक कार्यमें ही वे अपना समय बिताते हैं। यदि कोई मनुष्य, साधुओंको कोई प्रकारका कष्ट पहुँचाता हो तो साधु उसके विरुद्ध या निजकी रक्षाके लिये राज-दरबार, थाना, कचहरी, पुलिसमें इत्तला नहीं देते। स्वयं किसी मामले में साक्षी नहीं दे सकते और न दूसरेसे इस तरहके किसी कार्य में सहयोग ले सकते हैं ।
(११) तेरापंथी साधुओंके कोई मठ, मन्दिर, स्थान आदि नहीं हैं। वे तो गृहस्थों के घरों में उनकी इजाजतसे रहते हैं।
(१२) तेरापंथी साधु साध्वी साधारणतया उच्च कुलके महाजन सम्प्रदायसे ही दीक्षित होते हैं। उन्हें आजीवन प्राचाय्यकी प्राज्ञानुसार चनना पड़ता है। प्रत्येक कनिष्ठ साधुको उनके ज्येष्ठ साधकी भी आज्ञा माननी पड़ती है । कनिष्ठता व ज्येष्ठता उम्रके अनुसार नहीं किन्तु दीक्षा क्रमके अनुसार ही मानी जाती है। (१३) तेरापंथी सम्प्रदाय की दीक्षा प्रणाली:
(क) नव वर्षसे कम उम्र वालों को दीक्षा नहीं दी जाती।
(ख) नव वर्षसे ऊर्द्धवयः के दीक्षार्थी को भी तीन वैराग्य भाव देखकर दीक्षा दी जाती है।
(ग) तीव्र वैराग्य भाव होने परभी जब तक नवतत्त्वका जान पण दीक्षार्थी में नहीं होता तबतक दीक्षा नहीं होती।
(घ) उपरोक्त समस्त बातें होने पर भी दीक्षार्थीकी संयम पालन शक्तिकी जांच कर पीले दीक्षा दी जाती है।
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(3) पूर्ण अनुसंधान और बहुत निवेदन करने पर एक मात्र प्राचार्य महाराज ही दीक्षार्थीकी योग्यता देखकर दीक्षा देते हैं।
(च) जिस दीक्षार्थीके माता पिता मौजूद हों ( चाहे दीक्षार्थीकी उम्र कितनी ही क्यों न हो) उनकी दीक्षा माता पिता के बार-बार अरज करने पर व लिखित अनुमतिसे जिस गांवका दीक्षार्थी हो वहां के पांच प्रतिष्ठित सजनोंकी लिखित साक्षीसे ही दीक्षा होती है।
(छ। विवाहित दीक्षार्थी होनेसे पति या पत्रीकी लिखित अनुमति बिना दीक्षा नहीं होती।
(ज) प्रकाश्य स्थान में जनसाधारणके समक्ष, पूर्व सूचित तिथि में दीक्षा दी जाती है।
उपरोक्त नियमोंके कारण इस संप्रदायकी दीक्षा श्रादर्श दीक्षा रूपमें सब कोई स्वीकार करते हैं।
(२४) उपरोक्त नियमोंके अतिरिक्त प्राचार्यों की बनाई हुई मर्यादा व नियमोंका पालन समस्त तेरापंथी साधु साध्वियोंको करना पड़ता है। किसी साधु साध्वीके नियम भङ्ग करनेपर प्राचार्य महाराज उसे उपयुक्त दण्ड प्रायश्चित देते हैं। दण्ड स्वीकार न करनेसे. उसे संघमें सामिल नहीं रखा जाता। नियमानुवर्तिताके प्रभावसे ही प्रायः ६.० साधु साध्वी पंजाबसे दाक्षिणत्य तक व कच्छ गुजरातसे मध्यप्रान्त तक विभिन्न स्थानोंमें एक सूत्रसे, एक शासनमें, निर्विवाद, एक आचार्यकी आज्ञानुसार विचर रहे हैं।
जैन श्वेताम्बर तेरापन्थी साधुओंकी संख्या तेरापंथी सम्प्रदायमें सम्वत् २००० के अंत तक १७० साधु व ४२४ साध्वियाँ मौजूद हैं। उनमें चतुर्थश्राचार्यके समयमें दीक्षित १ साधु व १ साध्वी विद्यमान हैं। पंचम आचार्यके समयमें दीक्षित १ साधु व ४ साध्वियाँ विद्यमान हैं। षष्ठप्राचार्यके समयमें दीक्षित - साधु व ४ साध्वियों विद्यमान हैं । सप्तम श्राचार्यके समयमें दीक्षित : साधु व ५४ साध्धियाँ विद्यमान हैं। अष्टम आचार्यकै समयमें दीक्षित ८६.साघु व .
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( ४ )
२०४ साध्वियों विद्यमान हैं। नवम आचार्यके समयमें दीक्षित ७३ साधु
व ९५७ साविधयाँ विद्यमान हैं ।
इनमें थी प्रान्तके साधु ६६ साध्वियाँ
२६
मारवाड़
मेवाड़
मालवा
हरियाणा
पंजाब
३३
३
५
36
36
"
""
99
"
२८४
६४
४८
३
४
दु ढाड
२
१४
39
कुँवारे साधु १३४, विपत्नीक १६ सजोड़े १६ स्त्री छोड़ १
कुमारी साध्वियाँ १७४ विधवा १६२ सजोड़े २० पति छोड़ ३८ यह सब साधु साध्वियाँ एक आचार्यकी आज्ञामें चल रही हैं । गत चातुर्मास में विभिन्न प्रान्तोंके ६७ शहरों में इनका चातुर्मास हुआ । इन सबको अपने दैनिक कृत्योंका लिखित हिसाब आचार्य महाराज को देना पड़ता है । स्वयं धर्ममें विचरते हुए भव्य जीवोंके आत्मिक उद्धारके निमित्त धर्मोपदेश देना ही इनके जीवनका एक मात्र लक्ष्य है। माघ महोत्सव
यह आचायोंकी दूरदर्शिता का ही फल है कि प्रत्येक वर्षे समस्त साधु साध्वियों के कार्यकलाप, आचार-व्यवहार, योग्यता आदिके निरीक्षण के लिये चातुर्मास के बाद माघ महीने में जहाँ श्राचार्य्यं महाराज विराजते हों वहाँ समस्त साधु सतियाँजी आकर श्री पूज्य श्राचार्य्यजी महाराज के दर्शन कर उनको अपने २ धर्म-प्रचार कार्य्य का परिचय देते हैं। माघ महोत्सव माघ सुदी ७ को होता है। जो साधु सतियाँ शारीरिक अशक्तता के कारण या प्रचार काय्यंके लिये सुदूर प्रदेश विशेषमें आचार्य महाराजकी आज्ञासे विचर रहने के कारण इस उत्सव में सामिल होने में असमर्थ हों, उनको छोड़ बाकी
सब साधु साध्वियों माघ सुदी ७ तक आ पहुँचते हैं । उसी दिन या
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उसके लगभग ही, भावी चातुर्मासमें कहाँ कहाँ, किन-किन साध, सतियों को प्रचारार्थ भेजा जायगा यह प्राचार्य महाराज श्रावकोंकी अरज तथा अन्यान्य बातोंको विचार कर स्थिर करते हैं। इस मौके पर बहुत श्रावक-श्राविकाएँ जगह जगहसे आती हैं। एक ही जगह सैकड़ों साधु मुनिराजोंका दर्शन कर उनके संगठनका एवं परस्परके विनम्र भावका प्रकृष्ट प्रदर्शन देख हृदय स्वतः भक्ति व वैराग्य रससे प्लावित हो जाता हैं। जहाँ आज भाई-भाईमें कलह, पिता-पुत्रमें कलह, स्वजन-ज्ञातिमें कलह, वहाँ भिन्न-भिन्न स्थानके भिन्न-भिन्न वयसके, भिन्न-भिन्न परिवारके ५००।६०० साधु साध्वी कैसे एक सूत्र में, एक प्राचार्यकी प्राज्ञामें, एक भगवद्भाषित धर्मकी छत्रच्छाया में, मुक्ति कामनाको एकमात्र लक्ष्य बनाकर ज्ञान, दर्शन, चरित्रके
आधार पर एवं दान, शील, तप, भावनाके बलसे अपनी आत्मोन्नति कर रहे हैं एवं साथ साथ भव्यजीवोंको सदुपदेश देकर भव-समुद्रसे तार रहे हैं यह देखने और मनन करनेका विषय है। ऐसे पुनीत अव. सर पर इतने पवित्र मूर्ति महात्माओंके दर्शनसे हृदयके पातक दूरीभूत होते हैं। ऐसे महापुरुषोंकी वाणी सुन कर भव्यजीव कृतार्थ होते हैं। भरत-क्षेत्रमें, त्रितापदग्ध संसारी जीवोंके कल्याणकामी तेरापंथी साध. साध्वियाँ देशके, समाजके, राष्ट्रके, व विश्वके गौरव-रूप हैं।
तेरापंथी साधु समाजमें विद्या प्रचार । आज कल विद्वानोंका समादर सर्वत्र है। शास्त्रोंका अध्ययन, अध्यापन, व्याख्यान आदिके लिये विद्या चर्चाकी बहुत जरूरत है। परमपूज्य पूज्यजी महाराजाधिराज सकलगुणनिधान बालब्रह्मचारी श्री श्री १००८ श्री कालुरामजी स्वामीके समयमें तेरापंथी साध सम्प्रदायमें अच्छे अच्छे विद्वान एवं पण्डित मुनिराजोंका प्रादुर्भाव हुआ है । १०।१२ वर्षकी उम्रमें दीक्षित साधगण अल्प समयके भीतर संस्कृतके इतने ज्ञाता हो जाते हैं कि देखनेसे पाश्चर्य होता है। कम
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( 82 )
उम्र के साधु मुनिराजों द्वारा प्रणीत 'भक्तामर' व 'कल्याणमन्दिर' जैसे स्तोत्रों के पाद पूर्तिरूप, 'कालु भक्तामर स्तोत्र' एवं 'कालु- कल्याण मन्दिर' आदि काव्यों को अवलोकन कर बहुत से विद्वान मुग्ध हुए हैं । श्री पूज्यजी महाराजकी देख रेख में साधुओं के शिक्षार्थ दो संस्कृत व्याकरणकी रचना हुई है, जो कि अपूर्व ग्रन्थ है, एक तो बृहत् है और एक छोटा । बडे व्याकरण का नाम है श्री भिक्षु शब्दानुशासन और छोटेका श्री कालु कौमुदी । वैज्ञानिक शैलीसे समस्त व्याकरणोंका सार लेकर व्याकरण-सूत्र व वृत्ति बनाना कम पांडित्यका काम नहीं । संस्कृत साहित्य के विद्वानोंसे अनुरोध है कि वे इन ग्रन्थोंका अवलो कन करें ।
Y
हम समस्त जैन एवं जैनेतर विद्वानोंसे, दार्शनिक एवं धार्मिक तत्वोंके जिज्ञासु एवं खासकर जैन- शास्त्र व साहित्य के अनुसन्धान प्रेमी सज्जनोंसे अनुरोध करते हैं कि वे जैन श्वेताम्बर तेरापन्थी सम्प्रदाय के आचार्य महाराज और उनके साधु साध्वीवर्गका दर्शन करें एवं उनके संयम, त्याग, वैराग्य तथा तपस्या मय जीवन में एक नवीन ज्योति, नवीन आदर्श, और नवीन संगठनका आदर्श सम्मेलन देखकर कृतकृत्य होवें ।
दानदया के सम्बन्ध में फले हुए भ्रम का निराकरणं
( १ ) लोक बहकान हेत बात यूँ बनाय कहे,
तेरा पंथी दान दया मूल से उखार दी । उनको बाड़ो तामे आग को लगाई नीच,
ताको कोऊ खोले तामें मनाही पुकार दी || भूखे अरु प्यासे दीन दुखियों को देवे दान,
ताको मत देवो ऐसी अंतराय डार दी । तुलसी भनंत ताको तेरापंथ मतहूकी
वाकैफीन पूरी योंही कूरी गप्प मार दी ।।
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( ५०
)
भिक्षा लेन हेत गृहस्थ घर जात भिक्षु,
आगे कोऊ रोक भिक्षा लेवत दिखात है। ताही को उलंघ नहीं गृह में प्रवेश करे,
मध्यजात ताको चित्त अंतर दुखात है। एती अंतराय भी न करे मुनिराज ताके,
मनाही करना तो एक मोटीकसी बात है। तुलसी भनंत अंत तंत को विचार ऐसे,
सोही इण काल प्रभु तेरापंथ पात है।
ऐसी ऐसी व्यर्थ बात तान मत पक्षपात,
करते हमेश ताकी बुद्धि जो बिगड़गी। ताकी सुन वाच नहीं साँच कूड़ जाँच करे,
लोकन में एक लहतान प्रान बड़गी। एक भेड बोले भ्यां दूजी पिण बोले भ्यां,
तीजी अरु चौथी सब भाज भाज भड़गी। तुलसी अनंत समझावे अब काको काको,
सारे जिहान आतो कुए भांग पड़गी ॥
बाड़ो कोऊ खोले तामें करत मनाही कोई,
वह साधु ना कसाई से भी नीच कहलात है । स्वेच्छा निज गेह लूटावे सब लोकन को,
ताके कोई तेरापंथी प्राडो नहीं पात है। पात्र वो कुपात्र एक मात्र तोन करे तामें,
खेतर अरु उसर सो अंतर बतात है। तुलसी भनंत अंत तंत को विचारे ऐसे,
सोही इण काल प्रभु तेरा पंथ पात है ।
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तेरापंथा समाज में दीक्षित साधु साध्वियों का विवरण विक्रम सम्वत् १८१७ से लेकर विक्रम सम्बत् २००० के अन्त तक । मोट दीक्षा
नावालिग। | साबालिग गण बाहर | गण बाहर दीक्षादाता
[ नाबालिग सावालिग प्राचार्य नाम
संत | सती संत | संती । संत । सती संत | सती| संत | सती
। ४६
०
२०
० ० ०
( १ )
१०५
भीखणजी भारीमालजा रायचंदजी जीतमलजी मधराजजी माणकलालजी डालचंदजी कालूरामजी
तुलसीरामजी ( वर्तमान प्राचार्य)
मोट आज तक
- ॥ ° we d' ० ० |
० ०
२
० ० ० ० km
३६ १५५
० ०
-
२५५ १६६
०
-
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--
-
-
०
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। ५२ ) उपरोक्त विवरणी के विश्लेषण से लब्ध आंकड़े मोट १८४ वर्ष में दीक्षा संत ५६१ सतियां ११४५
मोट १७३६ उक्त समय में नाबालिग संत दीक्षित १३० नाबालिग
सतियां २३० मोट ३६० उक्त समय में साबालिग संत दीक्षित ४६१ साबालिग सतियाँ ६१५
मोट १३७६ १५४ वर्ष में नाबालिग अवस्था में दीक्षित संत गण बाहर १६
सतियां ४ मोट २० १८४ वर्ष में साबालिग अवस्था में दीक्षित संत गण बाहर १३१
सतियां ४० मोट १७१ १८४ वर्ष में सर्व संत सतियां दीक्षित में सर्व गण बाहर मोट १६१ १-सर्व दीक्षा के अनुपात में नाबालिग संतसती दीक्षित
प्रतिशत करीब २१ २-सर्व दीक्षा के अनुपात में साबालिग संतसती दीक्षित।
प्रतिशत करीब ७६ ३-सर्व संत दीक्षित के हिसाब से नाबालिग संत दीक्षित
सैकड़े में २२ ४-सर्व संत दीक्षित के हिसाब से साबालिग संत दीक्षित
सैकड़े में ७ ५-सर्व सती दीक्षित के हिसाब से नाबलिग सती दीक्षित
सैकड़े में २० ६-सर्व सती दीक्षित के हिसाब से साबालिग सती दीक्षित
सैकड़े में ८० ७-१८४ वर्ष में समस्त दीक्षित संतसतियों में मोट गणबाहर
संतसतियों का औसत प्रतिशत ११ ८- १८४ वर्ष में समस्त संतसतियां दीक्षित में नाबालिग
संतसती दीक्षित गण बाहर प्रतिशत १ १-१८४ वर्ष में समस्त संतसतियां दीक्षित में साबालिग Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-पक्षित संतसती गण बाहर प्रतिशत १०
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( ५३ )
१० - १८४ वर्ष में समस्त दीक्षित सिर्फ संतों में मोटगण बाहरं औसत प्रतिशत २५ ११ - १८४ वर्ष में समस्त दीक्षित संतों के हिसाब से नाबालिग दीक्षित संत प्रतिशत गणबाहर ३ से कम १२ - १८४ वर्ष में समस्त दीक्षित संतों के हिसाब से गणबाहर साबालिग दोचित संत प्रतिशत २२ १३ - नाबालिग संत दीक्षित के हिसाब से नाबालिग संत साबालिग होने पर गण बाहर प्रतिशत १३ से कम
१४ – साबालिग संत दीक्षित के हिसाब से
साबालिग संत
गण बाहर प्रतिशत २६ १५ - १८४ वर्ष में समस्त सतियाँ दीक्षित में मोट गण बाहर सतियाँ प्रतिशत ४ से कम १६-१८४ वर्ष में समस्त सतियाँ दीक्षित में नाबालिग सतियाँ साबालिग होकर गणबाहर प्रतिशत १ से कम १७ - १८४ वर्ष में समस्त सतियाँ दीक्षित में साबालिग दीक्षित सतियाँ गणबाहर प्रतिशत ४ से कम १८ - नाबालिग सती दीक्षित के हिसाब से नाबालिग सती साबालिग होने पर गणबाहर प्रतिशत २ से कम १६ - साबालिग सती दीक्षित के हिसाब से साबालिग सती गण बाहर प्रतिशत ५ से कम २० - १८४ वर्ष में नाबालिग दीक्षित संतसती में नाबालिग संतसती पीछे गणबाहर प्रतिशत ५ २१ - १८४ वर्ष में साबालिग दीक्षित संतसती में साबालिग संतसती प्रतिशत गरणबाहर १३
उपरोक्त विवरण में १६ वर्ष की आयु से ऊपर वाले साबालिग समझे गये हैं ।
मुद्रक--गुलाबचन्द अग्रवाल, बी. कॉम., अग्रवाल प्रेस, वितपाड़ा-प्रागरा ।
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________________ प्राप्ति स्थान(१) श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी सभा, 201 हरीसन रोड, कलकत्ता (2)"" " " , शाखा कार्यालय, पो० गंगा शहर (बीकानेर श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी सभा ___201 हरीसन रोड, कलकत्ता / सभासे प्रकाशित निम्नलिखित पुस्तकें बिक्रयार्थ मौजूद हैं :जैनतत्त्व प्रकाश भाग 1 / 2 (हिन्दी ) प्रत्येकका // ) कालु भक्तामर (संस्कृत, हिन्दी अनुवाद सहित) ज्ञान प्रकाश (गुजराती) भिक्षु यश रसायन पंच महाव्रतकी अोल खान, दानदया की अोल खान , थोकड़ा संग्रह भाग 1 थोकड़ा संग्रह भाग 2 श्रावक व्रत धारण विधि।) The Jain Swetambar Terapanthi Sabha 201, Harrison Road, Calcutta. Branch, Gangashahr P.O. (Bikaner). जाल Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com