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जैनियोंके उपवास इनसे कहीं ऊँचे उद्देश्य के लिए किये जाते हैं । आत्म कल्याण और कर्मों से छुटकारा पानेके लिये ही उनके उपवास हैं । जीवात्माका कर्मों के साथ जो संयोग रहा हुआ है उस संयोगमें से आत्म-तत्वको उसके असली रूप में अलग करनेका काम तपस्या ही करती है । जैनी लोग सांसारिक, सामाजिक या राजनैतिक उद्देश्यको सफल करनेके लिए उपवास नहीं करते। जैन शास्त्रों के अनुसार ऐसे उपवास आत्माको आत्मिक कल्याण की ओर बढ़नेमें, हानिके अतिरिक्त कोई लाभ नहीं पहुँचाते। ऐसी तपस्याओं में जो कष्ट उठाना पड़ता है यद्यपि वह सम्पूर्ण व्यर्थ नहीं जाता तथापि उससे जितना लाभ मिलना चाहिए उसका सहस्रांश भी नहीं मिलता। वह तो हीरे को कौड़ियों के मोल बेचना है । पाठको ! ऐसी तपस्याएं केवल साधु ही नहीं करते परन्तु इस सम्प्रदाय के श्रावक और श्राविकाओंमें भी प्रचलित हैं । चातुर्मासमें जहां जहां तेरापन्थी साधु साध्वियां रहती हैं व श्रावक श्राविकाओं में बड़े उमंग एवं आनन्दसे कठोर व दुःसाध्य तपस्या होती है ।
तेरापन्थी साधुओंकी नियमानुवर्तिता
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तेरापन्थी संप्रदाय में नियमानुवर्तिता व संगठन पर पूर्ण ध्यान दिया जाता है । समस्त साधुसाध्वियों को निर्दिष्ट नियमोंका सम्यकू पालन करना पड़ता है । शिथिलाचारको प्रश्रय नहीं दिया जाता । साधुका उद्देश्य आत्मकल्याण है । वे अपनी संयममय जीवनयात्राके निर्वाहार्थ सर्वथा शास्त्रोक्त रीति से चलते हैं। तेरापन्थी सम्प्रदाय, साधुसमाजको उनके गुणों के कारण ही पूजनीय एवं वन्दनीय समझता है । अतः उनके गुणों में कोई फरक न पड़े इसलिये साधु व श्रावक समाज सर्व प्रकार से साधु समाज के प्रत्येक कार्य-कलाप पर तीक्ष्ण दृष्टि रखता है। जिनके चरणों पर श्रावकों का मस्तक स्वतः भक्ति भावसे नत होगा
उनका आदर्श, उनका चरित्र, उनका आचार उस उच्च पदके योग्य
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