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( ३० ) लिये ही हैं इसलिए दोनोंमें आकाश पातालका अन्तर है। साधुको दी हुई छूटें धर्मकी पोषक हैं-उनमें संयम-रक्षाका गम्मीर हेतु रहा हुत्रा है, परन्तु श्रावककी रखी हुई छूटें संयम धर्मकी बाधक और इसलिए
आत्म घातक हैं। जो जो क्रियाएँ संयमी जीवनकी बाधक हैं उनका भगवानने पूर्ण निषेध किया है और इसलिये श्रावककी छूटोंमें पाप ही ठहरता है। अन्य सम्प्रदाय वालोंसे तेरापंथियोंका मत-पार्थक्य इस विषयमें भी है, पर न्याय दृष्टिसे देखनेसे सत्यासत्यका निर्णय होगा। (५)जीव जीवे ते दया नहीं, मरे ते हो हिंसा मत जाण ।
मारणवालाने हिंसा कही, नहीं मारे ते दया गुणखान हो । कोई जीव जीवित रहता है यह दया या अनुकम्पा नहीं है। जीव अपने अधिकार या स्वोपार्जित कर्मके बल पर ही जीवित रहता है। जब तक आयु समाप्त नहीं होती किमीकी ताकत नहीं कि किसी जीवको मार दे या उसका जीना बंद कर दे । इसलिये कोई जीव जीवित रहता है तो उसमें किसीका अहसान नहीं। इसी प्रकार किसी जीवका मरजाना ही हिंसा नहीं है क्योंकि जीव अपने २ कर्मोदयसे मरते ही रहते हैं । जीवन और मरण तो इस संसार की नित्य वस्तुएँ हैं।
हिंसाका पाप तभी लगता है जब मनुष्य खुद किसी जीवका घात करता है या घात करनेका निमित्त या सहायक कारण होता है। अपनेसे मारे या घात किये गये जीवोंके लिये ही कोई उत्तरदायो ठहर सकता है। किसी जीवको सर्वथा सर्व प्रकारसे न मारनेका त्याग करना ही सबसे बड़ी दया है। अहिंसाको ही भगवानने पूरी दया बतलाया है। जैसे ही मनुष्य अहिंसाका व्रत अङ्गीकार करता है और उसका पूर्ण पालन करने लगता है वैसे ही वह संसारके समस्त जीवोंके लिए अभय दाता हो जाता है । जीवोंको उससे किसी प्रकारके भयकी
आशंका नहीं रह जाती । मन, वाणी और शरीरमें अहिंसाका पालन करना, दूसरोंसे हिंसा न कराना और हिंसा करने वालेका अनुमोदन,
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