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व्यावच करना करवाना व अनुमोदना पाप मूलक है । कारण यह प्रभुकी आज्ञा के सर्वथा खिलाफ है |+
(३) प्रभुने जहां मौन रखा है वहां पाप-केवल पाप ही हैधर्म और पाप मिले हुए नहीं हैं। जहाँ प्रभुने हाँ और ना दोनोंमें पाप समझा वहीं उन्हें मौन धारण करना पड़ा है । उदाहरणस्वरूप कुआँ खुदाने में लगे हुए किसी मनुष्यने भगवान् से प्रश्न किया कि प्रभु ! कुआं खुदानेमें मुझे पाप होगा या पुण्य । प्रभुने इस प्रश्नका कोई प्रत्युत्तर न दिया बल्कि मौन धारण किया। यहां कुआँ खुदानेसे जीव हिंसा हो रही थी इसलिये यदि भगवान् यह कहते कि यह पुण्य का कार्य है तो झूठ बोलनेसे मोहनीय कर्मका बंध करते और यदि सत्य बोलते हुए यह कह देते कि इसमें पुण्य नहीं पाप है तो शायद कुआँ खोदना बन्द हो जानेसे जीवोंको पानीका लाभ न होता । इस प्रकार जीवोंके सुखमें अन्तराय पहुँचानेसे उन्हें अन्तराय कर्मका बंध होता । एक ओर मोहनीय कर्मका बंध और दूसरी ओर अन्तराय कर्म का बंध था इसलिये भगवानने प्रश्नका कोई उत्तर न दिया । कुछ सम्प्रदाय वाले मौनको सम्मतिका लक्षण भलेही ठहराते हों परन्तु
+ जे जे कारज जिन आज्ञा सहित छे, ते उपयोग सहित करे कोय । से कारज करतां घात होवें जीवांरी, तिणरो साधने पाप न होय रे ।। नदी मांही बहती साध्वी ने साधु राखें हाथ तिण मांही पिग है जिए जी री आज्ञा, तिणमें कुरण पाप इर्यासमिति चालतां साधु स्यु, कदा जीव तणी होवे ते जीव मुत्र से पाप साधु ने, लागे नहीं अंश मात रे । जो इर्या समिति बिना साधु चाले, कदा जीव मरै नहीं कोय । तोपि साधु ने हिन्सा छउँ कायरी लागें, कर्म तो बंध होयरे ॥ जीव मुमा तिहाँ पाप न लाग्यो, न मुद्रा तिहाँ लागो पाप ।
घात ।
जिण आज्ञा संभालो जिण भाज्ञा जोवो, जिण आज्ञामें पाप म थापोरे |
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सम्भावै ।
बतावैरे ।