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( २८ ) गहन विचार करनेसे ऐसी मान्यता भ्रान्त मालूम हो जायगी। नीतिविदोंने “मौनं सम्मति लक्षणम्" अवश्य बताया है। किन्तु “नीति"
और "धर्म" के क्षेत्रमें बहुत अन्तर है । नीतिकी मान्यताके अनुसार भी हम मौन भावको सदा सर्वदाके लिये सम्मतिका लक्षण प्रमाण नहीं कर सकते, और जैन-धर्मके अनुसार तो "मौन" का अर्थ सम्मति किसी प्रकारसे और किसी अंशमें नहीं हो सकता।
(४) ब्रतमें धर्म, अव्रतमें अधर्म है। जैन धर्म, साधकोंके दो भेद करता है। एक अणुव्रतियोंका जो गृहस्थ जीवनमें रह कर आत्म.. कल्याण साधन करनेका प्रयास करते हैं और दूसरा महाव्रतियोंका जो सर्व व्रती साधु होते हैं। इन दोनों प्रकारके साधकोंका आदर्श तो समान ही रहता है परन्तु अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य अपरिग्रह इन प्रात्मकल्याण के साधनोंको दोनों समान रूपसे नहीं अपना सकते। श्रावक गृहस्थाश्रमी है अतः अपनी गाईस्थिक आवश्यकताओंके कारण इन व्रतोंको आंशिक रूपमें ही स्वीकार कर सकता है अर्थात् वह मर्यादित धर्मका पालन करता है । परन्तु साधु सम्पूर्ण रूपसे इन ब्रतों को अङ्गीकार करते हैं । कहने का तात्पर्य यह है कि गृहस्थ अपने लिये छूट-श्रागार रख लेता है परन्तु साधु कोई छूट प्रागार नहीं रखते हैं। श्रावक आगार-धर्मी साधु अनागार-धर्मी होते हैं। श्रावक जितने अंशमें इन ब्रतोंको अपनाता है उतने अंशमें वह धर्म पक्षका सेवन करता है और जितनी छूटें रख लेता है उतने अंशमें अधर्म पक्षका । साधु सम्पूर्ण अंशमें इन व्रतोंको अपनाते हैं अतः वे केवल धर्म पक्षका ही सेवन करते हैं। जैन श्वेताम्बर तेरापन्थी मतके अनुसार श्रावक जितना आगार रखता है उसके लिये उसे पाप ही होता है। उदाहरण स्वरूप यदि कोई श्रावक यह प्रतिज्ञा करे कि-"मैं अपनी मील घण्टा ही चलाऊँगा अधिक नहीं" तो उसे ८ घण्टा मील चलानेका पाप तो अवश्य ही लगेगा एवं बाकी १६ घण्टेके लिये, जब कि वह पासानीसे मील चला सकता था, त्याग करता है, वह धर्मका कारण
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