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( ३२ ) मौन धारण करते हैं या वहांसे उठकर चले जाते हैं। जैन धर्म नहीं चाहता कि किसीके दुर्गुणोंको भी जोर जबरदस्तीसे हटाया जाय। स्वामी भीषगाजने ठीक ही कहा है:__ "मूला गाजर ने काचो पानी,
कोई जोरी दावे ले खोसी रे। जे कोई वस्तु छुड़ावे बिन मन,
इण विधि धर्म न होसी रे ॥ भोगी ना कोई भोगज रूंध,
बले पाडै अन्तरायो रे । महा मोहनी कर्म जु बाँध,
दशाश्रुतखन्धमें बतायो रे ।" हरी वनस्पति और सचित्त पानी पीनेमें एकेन्द्रिय नीवकी हत्या होती है अतः पाप है। परन्तु अगर कोई हरी वनस्पति और सचित पानी पीता हो तो उसे जबरदस्ती छीन लेना जैन दृष्टिसे धर्म नहीं है। इसी प्रकार अहिंसाका सिद्धान्त है-अहिंसा माने यह नहीं कि हिंसाप्रेमियोंकी हिंसा को हिंसा द्वारा अर्थात् बलपूर्वक रोका जाय । इस प्रकारकी जबरदस्ती या बलप्रयोगमें तो हृदयका परिवर्तन नहीं है । बिना मन कोई काम करा लेनेमें धर्म नहीं है। वैसे तो. यह संसार ही हिंसामय है, जगह जगह हिंसाएँ हो रही हैं। परन्तु उन्हें रोकना असं. भव है। मनुष्यको स्वयं मन वचन और कायासे अहिंसक होना चाहिए यदि वह स्वयं अहिंसक हैं तो उसके सामने हिंसाएँ होती रहें उसका पाप उसे नहीं है । हिंसा करने वाले, कराने वाले व अनुमोदन पालेको ही हिंसाका पाप होता है न कि देखने वालेको। यदि देखने वालको ही हिंसा हो तो अनन्त झान, अनन्त दर्शन, अनन्त चारित्र
और अनन्त बल सम्पन्न अरिहन्त भगवान् एवं त्रिकालदर्शी केवली कैसे अहिंसक बन सकते। अतः साधु हिंसा के कार्यों को देख कर
चलचित्त नहीं होते, परन्तु विवेक पूर्वक तटस्थता धारण किये रहते Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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