Book Title: Jain Shwetambar Terapanthi Sampraday Ka Sankshipta Itihas
Author(s): Shreechand Rampuriya
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Sabha
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छोगांजी लगभग ६६ साल की उम्र में स्वर्ग पधार गई । नाना प्रकार के कठिन तप और व्रतोंको करते रहने से इनका शरीर क्षीण हो गया था । देह दुर्बलता और आँखोंकी ज्योति चले जानेसे आपको विदासर (बीकानेर) में कुछ वर्ष तक स्थानाथ कर दिया गया था । अष्टम आचार्य महाराज के शासन कालमें धर्मका बहुत प्रचार हुआ। आपने १५५ साधु और २५५ साध्वियां दीक्षित की थी । श्रावक तथा श्राविकाओं की संख्या भी काफी बढ़ी है। थली, दुढाड, मारवाड़, मेवाड़, मालवा, पंजाब, हरियाना, आदि देशों के अतिरिक्त बम्बई, गुजरात दक्षिण आदि दूर दूर प्रांतों में आपने साधुओं के चौमासे करवाये जिससे धर्मका अधिक प्रचार हुआ है। अष्टम आचार्य श्रीकालूरामजी का शास्त्रीय अध्ययन बड़ा ही गम्भीर था । वे संस्कृतके अगाध पण्डित थे । अपने सम्प्रदाय के साधु और साध्वियों में आप संस्कृत भाषाका विशेष रूप से अध्ययन अध्यापना कराते रहे । आपका असाधारण शास्त्र ज्ञान, प्रभावोत्पादक धर्म उपदेश, गम्भीर मुख-मुद्रा, पवित्र ब्रह्मचर्यका तेज और व्यक्तित्वकी असाधारणता, हृदय पर जादूका सा असर डालती थी । उनके संसर्ग में जो आते थे उनकी भक्ति उनके प्रति सहज ही हो जाती थी । जैन शास्त्रोंके रहस्य और सच्चे अर्थको बतलाने में आपने भारतके दार्शनिकों को ही नहीं पाश्चात्य देशके विद्वानों की भी प्रशंसा प्राप्त की थी ।
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जैन साहित्य संसार प्रसिद्ध विद्वान: जर्मन देशवासी डा० हरमन (चिकागो ( अमरिका ) युनिवर्सिटीके धर्मके अध्यापक) जैकोबीने जो कि कई वर्ष तक कलकत्ता विश्वविद्यालय में जैन दर्शनके अध्यापक थे, आपके दर्शन किये थे और शास्त्रोंके कई रहस्योंको समझा था । चिकागो ( अमरिका ) युनिवर्सिटीके धर्मके अध्यापक डा० चार्ल्स डब्लू गिलकी भी आपके दर्शन कर प्रभावित हुये थे । अपने भाषण में उन्होंने तेरापन्थी धर्मके सिद्धान्त और साध्वाचार सम्बन्धी नियमोंको
भारत, यूरोप और अमेरिका के अपने मित्रोंके सामने रखनेका विचार
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