Book Title: Jain Shwetambar Terapanthi Sampraday Ka Sankshipta Itihas
Author(s): Shreechand Rampuriya
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Sabha

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Page 25
________________ ( २४ ) (४) श्रादान भंड निक्षेपण-वन पात्रादि उपकरणोंको उपयोग पूर्वक उठाना और रखना जिससे कि किसी जीवको कोई इजा (कष्ट) न पहुँचे। चीजको अच्छी तरहसे देख पूछ कर ही रखना उठाना साधके लिए कर्त्तव्य है। (५) उच्चारादि प्रतिष्ठापन-मल, मूत्र, श्लेष्म या अन्य परिहार्य वस्तुको, किसी जीवको दुःख न पहुँचे ऐसे स्थानमें उपयोग पूर्वक विसजन करना इस समितिका उद्देश्य है। जैन साधु मल, मूत्र श्लेष्मादि जीव-उत्पन्न करने वाली त्याज्य वस्तु तथा गंदगी, रोगादि फलाने वाली परिहार्य चीजोंको जहां तहां नहीं फेंक सकते । अपथ्य आहार, न पहरे जाने योग्य फटे कपड़े तथा अन्य विसर्जनयोग्य चीजोंको जीव रहित एकान्त स्थानमें उत्सर्ग करते हैं। (ग) तीन गुप्ति-मन, वचन तथा काया गुप्तिके सम्यक् पालनमें साधुको सदा सर्वदा सचेष्ट रहना पड़ता है। (१) मन-मनके दुष्ट व्यापारोंको रोकना । सरंभ, समारंभ तथा प्रारम्भसे मनको रोककर शुद्ध क्रियामें प्रवृत्त करना। (२) वचन-वाणीके अशुभ व्यापारको रोकना अर्थात् वाणीका संयम करना। (३) कायाको-बुरे कार्यों से रोकना अर्थात् देहको संयम में रखना। समितियाँ साधु जीवनकी प्रवृत्तियोंको निष्पाप बनाती है। अर्थात् श्रावश्यक क्रियाएँ करते हुए भी साधु समितियों के पालनके कारण पापके भागी नहीं बनते तथा गुप्तियाँ अशुभ व्यापारसे निवृत होने में सहायता करती हैं। इस प्रकार साधुका जीवन सम्पूर्ण संयमी होता है । वे इतने व्यवहार कुशल होते हैं कि संयमी जीवनकी सारी क्रियाओंको करते हुए भी अपनी सावधानी या उपयोगके कारण पाप कर्म का उपार्जन नहीं करते। जैन श्वेताम्बर तेरापन्थी साधु उक्त नियमोंको संपूर्णतया पालते हैं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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