Book Title: Jain Shwetambar Terapanthi Sampraday Ka Sankshipta Itihas
Author(s): Shreechand Rampuriya
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Sabha
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( २० )
साको सम्पूर्ण रूप से पालन करने के लिए हर प्रकारका त्याग करते हैं। यहाँ तक कि अपने प्राणों को भी उसकी साधना में नियोजित कर देते हैं । यही कारण है कि संसार में रहते हुए भी वे सम्पूर्ण अहिंसाका पालन कर सकते हैं । नीचे जैन साध्वाचार के कुछ ऐसे नियम दिये जाते हैं जिनसे पाठक समझ सकेंगे कि जैन साधु हिंसासे, सूक्ष्म से सूक्ष्म हिंसा से बचनेका किस प्रकार प्रयत्न करते हैं:
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( १ ) हिंसा से बचने के लिए जैन साधु खुद भोजन नहीं बनाते, न उनके लिए बनाये हुए, खरीदे हुए, देनेके लिए लाए हुए भोजनको लेते हैं । भिक्षा में चित, प्राशुक और निर्दोष आहार पानीका संयोग मिलता है तो उसे ग्रहण करते हैं अन्यथा बिना आहार पानीके ही . सन्तोष करते हैं। कोई उनके लिए भोजनादि न बना लें इसके लिए वे पहलेसे कहते भी नहीं कि वे किसके यहाँ गोचरी ( भिक्षार्थ गमन ) करेंगे |
(२) जैन साधु माधुकरी वृत्तिसे भिक्षा करते हैं अर्थात् बिना किसी एकके ऊपर भार स्वरूप बने वे थोड़ी थोड़ी अनेक घरों से मिक्षा ग्रहण करते हैं ।
( ३ ) कोई भिखारी या अन्य याचक किसी घर पर भिक्षा मांग रहा हो तो साधु भिक्षा मांगने के लिए वहाँ नहीं जाते। क्योंकि ऐसा करने से दूसरेके अन्तराय पहुँचे ।
( ४ ) हरी दूब, घास, राखसे ढकी हुई आगी, जल आदि पर से होकर साधु विहार नहीं करते ।
(५) यदि कोई दुष्ट, साधुको मारने के लिए आवे तो साधु प्रत्याक्रमण नहीं करते बल्कि समभाव पूर्वक उसे समझाते हैं और उसके न समझने से समभाव से आक्रमणको सहन करते हैं और विचार करते हैं कि मेरी आत्मा का कोई नाश नहीं कर सकता ।
(६) साधु खान पान, स्वच्छता तथा मल-विसर्जनके ऐसे
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