Book Title: Jain Shila Lekh Sangraha 02
Author(s): M A Shastracharya
Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti

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Page 202
________________ दानसालेका लेख ३६५ पत्थरका ऊपरी हिस्सा दृष्टिसे ओझल हो गया है । लेकिन लेखकी तीन पंक्तियां द्रष्टव्य हैं। इनमें सोमवार दिन तथा विषु संवत्सरके, जो कि चालुक्य विक्रम कालका २६ वाँ वर्ष अर्थात्, शक १०२३ ( = ११०१ ई०) होता है, श्रावणमास के शुक्लपक्षकी एकादशीका काल निर्दिष्ट है । पाषाणके दूसरे हिस्से में भगवान् जिनेन्द्रकी मूर्ति है जो कि पद्मासन है और जिसके दोनों तरफ यक्षिणियाँ चँवर ढोर रही हैं । पाषाणका शेष हिस्सा दृष्टिमें नहीं आता है; लेकिन उसमें भय्यावोळे ( ऐहोले ) के पाँचसौ महाजनद्वारा दिये गये दानका उल्लेख है । ] [ ई०ए०, ९, पृ० ९६, नं० ६९ ] २४८ दानसाले - संस्कृत तथा कन्नड़ [ शक १०२५ = ई० ११०३ ] [ दानसाळेमें, दक्षिणकी ओर, बस्तिके पासके एक पाषाणपर ] श्रीमत्परमगंभीरस्याद्वादामोघलाञ्छनम् । जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् || स्वस्ति समस्त भुवनाश्रयं श्री - पृथ्वी वल्लभं महाजाराधिराजं परमेश्वर - परम-भट्टारकं सत्याश्रय-कुळ तिळकं चालुक्याभरणं श्रीमत्-त्रिभुवनमल्लदेवर विजय - राज्यमुत्तरोत्तराभिवृद्धिप्रवर्द्धमानमाचन्द्रार्कतारं सलुत्तमिरे तत्पादपद्मोपजीवि ॥ समधिगत- पश्च महा-शब्द महामण्डलेश्वरनुत्तरमधुराधीश्वर पट्टि पोम्बुपुर- वरेश्वरम् महोग्र- वंशललामं पद्मावतीलब्ध-वर-प्रसादासादित- विपुळ-तुळा-पुरुष-महादान - हिरण्यगर्भ-त्रयाधिकदान वानर-ध्वज मृगराज- लाञ्छन- विराजितान्वयोत्पन्न बहु-कळा - सम्पन्न शान्तर-कुल-कुमुदिनी - शशाङ्क - मयूखाङ्कुर रिपु- मण्डलिक- पतंग - दीपाङ्कुरं तोण्ड- मण्डळिक-कुळाचळ-वज्रदण्डं बिरुद मेरुण्ड कन्दुकाचार्य्यं मन्दर-धैर्य कीर्ति - नारायणं शौर्य्य-पारायणं जिन - पादाराधकं परबळ

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