Book Title: Jain Shila Lekh Sangraha 02
Author(s): M A Shastracharya
Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti

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Page 219
________________ [जिनशासनकी समृद्धि-कामना । अनन्वदीर्य सूरस्वगण उत्पच हुए। उनके शिष्य वाचन्द्र मुनि उनके पुत्र प्रभाचन्द्र, उनके ि उनके पुत्र अष्टोपवासी मुनि उनके शिष्य हेमनन्दि मुने । इनके एक बिनयनन्दि नामक यति थे जिनके विषयमें नाइ-देशमें यह प्रसाद का कि वे शहरोंमें भाविकानोंके पास जाते हैं; लेकिन यह प्रवाद सही नहीं था । विद्वानो, इस बातको सुनो कि इस विषय में स्वयं तुम्हीं लोग साक्षी हो कि वे अपने पिताकी पत्नी ( अर्थात् अपनी माँ) से जैसा वर्त्तन करते थे वैसा ही बर्ताव बी-समुदायसे करते थे । उन अनन्तवीर्धका पुत्र एकवीर था जो अपने गुणोंसे 'अक्रम तीर्थ' कहलाता था । उसका छोटा बाई पल-पण्डित था । जैसे पूर्वकालमें पाक्यकीर्ति व्याकरणमें प्रसिद्ध था वैसे ही दान देनेमें यह प्रसिद्ध था। आगे उसके दानोंकी प्रशंसा की गई है, उसको नाम भी 'भानदानी' और 'पाश्यकीर्त्तिदेव' दिये गये हैं। जिस समय वीर-गन-होय्पल देव शान्ति और बुद्धिमताले अपना राज्य चला रहे ये तत्पादपद्मोपजीवी गङ्गराज महाप्रधानको, तळेकादुपर कम्बा करनेसे पहिले, उन्होंने कोई एक वर माँगनेको कहा। उत्तरमें माराने बिण्डिगन जिलेके लिये भूमि दान मांगा और विष्णुवर्द्धन होय्सल-देवने उसको वह दिया। गङ्गराजने भी उक्त भूमि पाकर शुभचन्द्र-सिद्धाम्यदेवके पादप्रक्षालन कर उन्हें सौंप दी। शुभचन्द्र- सिद्धान्तदेव मूलसंघ, देसिंग-गण, पुस्तक- गच्छ तथा कोन्द· कुन्दान्वयके थे । शाप । [EC, IV, Nagamangala tl., n° 19] २७०, २७१ श्रवणबेलगोला - संस्कृत तथा कार [ क्रमशः शक १०४१ = १११९ ई० और शक १०४२ = ११२० ई० ] (जै० शि० सं० प्र० भा० ) २७२ बकापुर-कढ़ [वि० पा० का ४५ व वर्ष ( शक १०१२ । १२० ई० [ फ्लीट ] |

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