Book Title: Jain Shila Lekh Sangraha 02
Author(s): M A Shastracharya
Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
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तेर्दाळका लेख
४३१ अन्तेनिसिद गोङ्कमहीकान्त श्री-माधणन्दि-सिद्धान्तिकरं भ्रान्तेन्तो कोल्लगिरदि [दं ] तरिसि समस्त-भव्यरभिवणिपिनम् ॥ तदाचार्य्यप्रभाववेन्तेन्दडे ॥ धरे दुग्धाब्धियिनन्धि चन्द्रनिनिनं तेजोग्नियिन्देन्त [ म ]न्तिरली पोस्तक-गच्छ-देसिग-गणं श्री-कोण्डकुन्दान्वयम् निरुतं श्री-कुळचन्द्रदेव-यतिपोधच्छिष्यारं सद्गुणा
कर-राद्धान्तिक-माघणन्दि-मुनियिं कण्गोपुगुं धात्रियोळ् ॥ क॥ अगणित-गुण-जळधिगळेने नगधैर्याधणन्दि-सैद्धान्तिकरावगमेसेवर्सन्-मतियिं जगदोळ् सामन्त-निम्बदेवन गुरुगळ् ॥ __ वृ॥ सन्ततवन्य-चिन्तेगळनोक्कु जिनास्यविनिर्गतागमार्थान्तरचिन्तेयोळ् नेरेदु निल्लदे सिद्धर सद्गुणंगळं चिन्तिसुतिर्प कोल्लगिरदग्गद सन्मुनि माघणन्दिसैद्धान्तिक-चक्रवर्ति जित-मन्मथ-चक्रियेनिप्पनुवियोळ् । ___ वृ ॥ अन्तरिसिई जैन-समयकोगेदं जिननीगळोवनेम्बन्ते जिनव्रतङ्गळनशेषजनक्कुपदेशमित्तु सामन्तनेनिप्प निम्बनेरगल नेगळ्दोप्पुव माघणन्दि सैद्धान्तिक-चक्रवर्ति जिन-धर्म-सुधाब्धि-सुधांशुवागने ॥ अवरप्रशिष्यरु ॥ ___ कवादि-विषोरग-तार्य-कर्बादि महा-गहन-दावदहन (ब) लवद्-वादीभसिंहरेसेदर्मेदिनीयोळ् कनकणंदिपण्डित-देवर ॥ तत्परवादीभ-पञ्चाननर स-धर्मर् ॥ श्रुतकीर्ति विद्य-त्र (ब )तिपर्षट्-तर्ककर्कशर
पर-वादि-प्रतिभा प्रदीप प्रवन जिंतदोषर् नगळ्दरखिळभुवनान्तरदोळ् ॥ तत्परवादि-शिखरि-शिखर-निर्भेदनोच्चण्डपवि-दण्डर सधर्मर् ॥

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