Book Title: Jain Shila Lekh Sangraha 02
Author(s): M A Shastracharya
Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti

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Page 240
________________ जैन-शिलालेख संग्रह ऊद्रि-कबड़ [विक्रम वर्ष कीलक ११२९ ई० (लु. राइस)।] [अनिमें चौथे पाषाणपर] खस्ति श्रीमद्-विक्रम वर्षद कीलक संवत्सरद माग (घ) शुद्ध १३ श्रीमन्महामण्डलेश्वरं एकलरस-देवरुद्धरेयोळ् सुख-संकथा-विनोददि राज्यं गेय्युत्तिरे ॥ परम-जिनेश्वरं तनगधीश्वरनुलसच्चरित्र। गुरु हरिण[न्दिादेव-मुनिपोत्तमनग्गद दण्डनायकम् । वर-गुणि-बोप्पणं जनकनुनत-शीलद नागियक्क मातरेयेनलेम् कृतार्थनो धरित्रिगे सिंगण-दण्डनायकम् ।। गुणद कणि जैन-चूडा। मणि वैरि-बलक्के समर-मुखदोळ् सुभटाप्रणि जिन-पदङ्गळं सिड्। गण-दण्डाधिपति नेनेदु सद्-गति-वेत्तम् ॥ [स्वस्ति । ( उक्त मितिको), जिस समय महा-मण्डलेश्वर एकलरस-देव, शान्ति और बुद्धिमत्तासे राज्य करते हुए उद्धरेमें विराजमान थे उस समय सिंगण दण्डनायक था। वह बड़ा भाग्यशाली था, क्योंकि उसके परम-जिनेश्वर अधीश्वर (इष्ट देव) थे, हरिनन्दि-देव-मुनि उसके गुरु, महान् दण्डनायक बोप्पण उसके पिता, और नागियक उसकी माता थी । यह दण्डनायक अपने समयका जैन-चूडामणि था, समरमें सामना करनेवाले सुभटोंमें अग्रणी था, जिनपदोंका ध्यान करते हुए उसको सद्गति मिली थी। [ EC, VIII, Sorab tl, n° 149 ]

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